पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३८७

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तुलसीदासजी ने वज़भाग का पेमा पूछ तिर फार सा कर दिया वि. उनके अनुयायी गये जवानं होने पर भी नजभामा का बहुत काम व्यवहार करने लगे । भाषा के अन्य साथियों की भाँति इस धि की भी भोपा मांसनीय है। सब बातों पर ध्यान रमाके हम इन्हें भी मधुसूदनदास की ये यो का कप समझते हैं। इनकी कविता के उदारश्यप म उ छन् नीचे स्टिमनै ६ ।। घर दार चपटा चमकि झफर्भरत चहुँ पर। | प्रेरर अरर आवास ते अल दात घन घेरि ॥ सात दिवस धीते यहि अढा । वपत जल जलघर दिनराती ॥ फीपि केपि दात जलधारा। मिठा न प्रज़ की नै भये जलद जलते सब रीते । रई। एक गुन ६ गुन वीवे ॥ गारा । महा प्रलय जल वरपे यानी। मन में धूप न पहुँब्यै पानी ॥१॥ जर्दैि वाम ऐसे क्यों लिसि उठ सय नार। देखा र माग्न चहुत महत्व व वृकुमार ।। प्रति निर उर जाति अहीरा । म छागि पठपै देशद्ध धरा ।। न चइत अवधी विधि कैसी । कतै कै झट भरत अौर ।। | गद्दन न पावत, घात । ते लपति पुनि । यि विधि है न गद्दात तिन्दै मल्ल चाइत गइन । पाम सइज मन से से। पकरे पुकारे, भुजदं इन पे । .ये प्रथम काम तन ताद। सिथिल कप पिचत मन मान्टिम र बार उसुदा यी भाई । ऊ चद्धत गैपालहि रानै ॥ फलक सुत वैरी भी आई। दरं प्राय घन पाल कन्हाई ॥