पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३९८

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गोपीनाथ ] उत्तरालंकृत प्रकरण । ८१ मिटे अरे को दाप तिन नित नहें विश्वास । सुनै दियत भूमिपति इत पूर्व के इतिहास ।। । फानन धीच कहूँ वट वृक्ष अति कमनीय । चह्न दिदा ते स्वतन छादित निविड़ अति रमनय ।। महँग प्रगति भाँति के तर्दै मत मैलत छैन । मृगा आघत तातर ते सहुत अतिसय चैन् । पलिन नामक भूप रात मुन्न विबर क तरतालु। भया निवसत अति थिचच्छन चपल लच्छन जास्तु । असत हे बट पृक्ष १ मार झाममा नाम । गहि अनुच्छन प्राप्त पनि कृत दृच्छिन काम || ज्ञात कालपसार म्याधा तहाँ लॉभदि जाय। रहे। अमरस फ्रम काका सरम नई सराय ।। एक दिन मार्जार लेमस चा तामधे पापि । परा व्याकुल कलपना कर मरन अपनै थापि ।। बझी लगि अनुभुदि असु कड़ि लगे। चरन निशंक। . परे पद प्रबल वक्त में हैरात नादि के ॥ झाल धंधन ढूंढ नै चड़ेि और आमिख खान। प्रयछ शगुदि घर्झा लखि के दिए अति हराम | अयि ६ अट लाज १ तेहि समय धूर उलूक। भरत भय मनु घरत निरपत फरत भीपम छ । आइ उत मग पके बैंठो कुछ गांवे ताहि । | ताई न दिय दादि अउ रद्द मा यहि घहि चाटि ।