पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४३

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बनवारी
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पूर्णाकृत प्रकरण

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बनवारी ] पूर्वालंकृत किरण । २६४) घनचारी संवत् १६९० वैः सगभग हुए । इन्होंने | रहाराजा जसचेतसिह के बड़े भाई अमरसिह की प्रशंसा फी । जहाँ के दरबार में सलावत छ ने अमरस है के गैयार फह देया था। इस पर प्रब ६फर उन उस दरवार ही में मार इला, जिसकी तारीफ में वमचारी ने नीचे लिने छन्द कहे । इनकी 'गार रस की कविता भो बड़ी उत्तम तथा सानुप्राप्त होती थी । इनकी गणना पद्माकर कवि फी 'गी में की जाती है। उवाद्दरण ! घन्य अमर डिदिश छत्रपति अमर, तिहार मान । सादजहाँ की गोद में न्यो सलविन नि ॥१॥ उत आँकार गुम ते कई इत निकसी जमघार । घार कहुन पाप न फन्डे जमाधर पार ॥३॥ आनि के सलामत प्रा र ६ जनाई घात तर धर पंजर फरेजे जाय कर। दलीपनिंघा के चलने भलिये के भयो । राज्यों गजसिइ के सुनी में बात जर की॥ घाई मनचारी बादसाह के तन्नत पास | फरक फरक लैथि देधिन से अरकी । फरकी धड़ाई के बड़ाई बादिने की फ चादि कि बड़ाई के झड़ाई जमधर की ॥३॥ नेह बरसाने तेरे ओइ सानै देसि यह बरसाने वर मुरली बजाय ।