पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

निक्षत्रभुः । [मु. १८३५ उठ छ अमेद्धि फान हुनत यान आई। उ अपुिने पुढे जार' एयि यस मन चुरायें। र विसाल गाल पर ग्नाभव केस भी चित्र गा। वा, धीच विन्दुरारी ६ ऐ चैसे घनाय । भृकुटी पंक नैन सज़न से फैशन गुंजन घारे । भइमेज़न मग मीन सदा जे मनजिन मनियारे । मचित जी ने कृष्णायन ३ गोस्वामी तुलसीदास में राम- चरित मानस के ग पर कविता की है। स्वामी जी का हूँग उतारने में यह फनि यहुत करके तफलमनारय हुमा है, और इसकी करिश्ता कुछ फु उनमें मिल जाती है। मंचित इस सफलता में बहुत प्रशंसनीय हैं । कथामालगिरफपियां में का पद चा है । प्पान पर आ पर धान । सुझछ सरीर सुकाळ सुचिसाप्ती ।।। घट्न सरद लियस वाऊँ । धर सधर विम्या चरित्र गर्ने । कुळिस यासी घनी बतास । सर; सद्द हम दुर्ति सी ॥ नक्षते बिखे छग पनि मन गदने । झन झलफलकै भन रहने।। गीत पटम्पर पवई पूः । सपने समान सुगन्धित करे ।। यक कर घर पुस्तक लिये यक कर पीना बैन। ज्ञानरूप सेभित सदर भगत अनुग्रह पेन ॥ अदि बिगएर इम गिरदार ! पहुँपै जाप तुरत तट धिरज्ञा ॥ चरज यमित भी लॉन्ध सरिन । हुतियनउपमाकसम खरिता ॥ कृष्ण देव फर्दै प्रिय जमुनासा । जिमि कुल इलेक प्रकासी । अति विसर पर पय पाचन । उभय करा सुघाट मन भाषेन।