पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४४२

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देवकीनन्दन] सत्तछंठ मरः । ११ विपरी---- चैतन्य महाप्रभु का अष्टयाम नथा इनका यशवन ६१' सफा राय १२ पेज अवार का छपा हुआ है। कविता साधारण शें की है। चैतन्य सम्प्रदाय में विशेषनदा वगाली छग हैं जिन्होंने संस्कृत या नँगा में अन्यन्नना की है। ये महाशय चैतन्य पाली मारिया सम्प्रदाय के थे। (६५) नील सी जी ने संवत् १८४५ के लगभग चानी माम एक ग्रन्थ रचा, जिसमें ११० पद हैं । यह अन्य मनै छतरपूर में है । ये महाशय गैर समादाय के थे, जो महाप्रभु बैतन्य झी चढाई हुई हैं। ये आदि में रुई के पास थे, पर पीछे से थी वृन्दावन में रहने लगे । इनकी कथित बड़ी ही मनेाहर हास्य धी। इम इनके तेय कवि की श्रेणी में रफ्तें में। ॐ ॐ विसद ब्यास दो चानी । मूलाधार इष्ट रस में उग्रफरप भगति एस सानी ॥ लीक वेद भेटुन ते न्यारी प्यारी मधुर का ॥ स्पादिङ सुचि चे उपजे माचत मृदु मन मान अयान ।। फशि के लुप विदारन फारन तीन तरल पानी । रस सिंगार सरित जमुन सम पर भारा घहरानी । विधि निर्देध गरि बर तक तैरत हुरि जस जघि समानी। र लीला सागर ते रस भर बरसै सदा सुहानी है (६) ६) देवकीनन्दन । फुज्ञ में निरन्ट उससे एक मील की दूरी पर मकरन्यू नागर