पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८७५ ये | उत्तरानंतृव्र प्रकरण । चाँठी की नलावै । मसा के गुरू आपु जाय, स्वास की पवन लागे सिल भगत है। ऐमक लगाये मस मग कै निहार जाति, अनु परमानु की समामता संगत हैं॥ नो कधि कई हाल 5 ॐ बन्नान करी मेरी जान काय शो बिचारियैा सुगत है। ऐसे अम वीन्हे दयाराम मन मेद कर जाके आगे सरसे सुमेरु से लगते हैं । (६८६) छेदीराम वैश्य [नेह]। इन्ही संवत् १८४९ में नेहापंगल नाम का प्रन्थ धनाया, जिस- में मष्ट, उद्दिष्ट, भेरु, कैदी, ताफा, इत्यादि कहे गये हैं। वना इसकी साधारण है। अपने नाम के अतिरिक और इस प्रन्थ में इन्ने कोई पता इत्यादि नहीं लिखा है। इसमें २६० अनुप इलैको के वरायर रचना है। इम इनका साधारप क्षेणे में रखते हैं। (६८७) भौन कवि । ये दाशय अभट्ट ( माद) धे। इनके पिता का नाम महा- पछि उपलच या । ठाकुर शिरसाद जी ने लिखा है कि ये नर- हरिवंशी यन्दीज़न घेती जिला रायबरेली में रहते थे। इनके | दयाह कर संवत् १९३४ में, जब शिषसिंहसरोज देना था, अर्धमान थे। शिवलिं६ तो नै भन का जाल संवत् १८८१ | माना है, परंतु इनका घनाया शाक्ततामय ग्रंथ सै० १८५६