पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४९४

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उत्कृ त प्रशारण ! * ८ ७७ बल खेडम मंडन धरने उद्धत देत उदंड। इल मदन दारुन समर हिन्दुराश भुज चंद्ध ॥ १ ॥ मैंति खेर फंस राजहंसन का मानसरे चंद्रमा पारन पर झन वितै गर । इंजन फेव कामत फान्ह् प्रजमहल हो । जलद पपीहन के कह ने रि गया । धीपन के द्वीप हरिहर दिग्गबालन के फैंकन का वासरंस देत ते गया। छना तिपाङ छति मछुछ उदार धीर भय के अधार ब्रा सुरु ॐ किदै गर्यं ॥ ३ ॥ कंटक्ति हुन्न गात बिपिन समाज्ञ वैद्य हुरी इरी भूमि हेर दि६ रजतु ६ ।। एने ६ फरम धुन परत मयुरनि की। घातक पुकार तैद ताप सरजतु ६॥ निपट अचाई भाई वधु जे असत गाउँ | दाउँ परे ज्ञान में न काऊ यज़ है। अरजा न मुनी रान गारजी चलत देर पूरे घन वैरी अव काहे गरजतु ६ ॥ ३ ॥ गुरत सरित सरचर पिटप यिर झारः झर त । फते। मुकै रापिली इलिश अंकुरित प्रोत्र ॥ ४॥ (११११) रसिक गोविन्द |

  • इनको बनाया दुमा झुगुलरसमाधुरी नामक ग्रन्थ मनै

ऐसा है, जो बड़ा विशद हैं। इसमें ३०१ छन्दों बुरा सृन्दावन