पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५१८

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धनीराम ] इत्तलत अकए । की कबिता भी इनकी सरस और प्रशंसनीय है। ये तैप कवि की क्षेत्रों में है ॥ चूमत फिरत मुख चाय पर नारिन के, साउन में पाचन वड़ाई साधु सकी। गुनि जन कंठ राखें सुमनसहर’ साड़ी। भार अर इन दरार भी मसकीं ॥ कहैं धनोराम भूप जानकी प्रसाद बाकी गई कवि सुमति सुपाद पोर न सकी । धाचे देस मन घपल गति गानो कछ जान न परति गति इरावर सुजस की ॥१॥ तारै सुत सगर उधारे बहू पतकेन । भारे पाप पुजनि चिदरे मोक पन से ।। परम पिनि पारती है। बिहाय शंभु शीश अधयों दे बैचन अप मनसे । कहे धनोराम गंग परम पुनीत तेरे | छाप तीने शक मेकि कि जस धनसे । गाई जलकनं गयाई चाय पैर पाई। माई क बडैन घड़ाई हदै सन नै । भाम-१३ १३१) जानकीप्रसाद बनाम। अन्ध१ रामचन्द्रको टीका, २ मुकरामायण, ६ रामभकि- प्रकाशिका ! कविताकाळ-१८७२! माय अच्छे विद्वान् कवटुप हैं। अपने रामपत्रिका की टीका घी उन्लम की सैर । ज्य