पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५५२

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३, पञ्चर] इत्तरालंकृत प्रकरवा । ६६३ लिया ! संवत् १८६० में महाराजा प्रतापसिंहजी पैदास हुये और उनके पुत्र गहाराजा जगतसिंहजी गद्दी पर बैठे। इन्होंने पद्माकर का पूर्ववत् मान तथा पद स्थिर रखा। इन्ही भारत की आज्ञा से पद्माकरजी नै संवत् १८६७ के लग भग अपनी कविता का भूप जगन्निनाद अंथ निर्माण दिया। यह ६७ छन्द का एक या अन्य हैं और इसमें भाचभेद एवं रस-भेद विस्तारपूर्वक चर्शित है। भाघ भेद के अन्तर्गत नायिकाभेद भी अजाता है। जगद्गद न केवल पद्माकरजी की कविता का बरन् झापा-सादित्य का ऋगार है। इसके छन्द पद्माकर के सादित्यगुण के वन में लिने जायँगे । नायिकाभेद' के पढ़ने घाळे जगदि और मदिरामजी कृत रसद्ध सब से पहले पढ़ते हैं और इन देने अंधां की कविता जैसी माद्दर है वैसे इनके लक्षण ता उदाहरण भी बहुत ही साफ़ ६ । शृङ्गार-रस के अंथे में इन देने के बराबर किसी अन्य ग्रन्थ का प्रचार नहीं है और भाषा-रसिकी ने जितनी अदिर इन ग्रन्थ को दिया है ' योग्य है। इसी समय या इसके कुछ दो आगे पीछे पद्माकरजी ने पद्मा- भरण नामक एफ अहङ्कारों का अग्ध बनाया, जिसमें केवल दोहा पाइयों द्वारा अलारों के लक्षण च उदाहरण दिलाये गये हैं । इस ग्रंथ में ३: छंद हैं। काव्य की उत्तमता में यह साधारण है। उदाहरणार्थ दा एक छंद नीचे दिये जाते हैं। घन से कम से तार से अभनपी अनुहार । ग्रल से मापस न से साठा वैरे बार।