पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५५५

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विश्वबन्धुयिना। [सं० १८ पूक्ति मा से उनका सितारा, जयपुर, और ग्यालियर जना यथार्थ मालूम देती है। काय य६ ६ के सैघत् १८६० में महाराजा प्रतापसिंह स्वर्गवासी हुए थे और हियारीजी ने लिखा है कि पद्माकर उनके यह कर रहे हैं, तो इस सिवि से पद्माकर का प्रतापसिंह के यह कम से कम काम है। साल के रहनी मानना पड़ेगा । फिर महाराजा रघुनाथराव के यहाँ भी इन्ने प्रचुर पुरस्कार पाया या, सी पी भी मैं साल देढ़ साल से कम फ्या हे होगे । तिवारीजी के कथनानुसार पर संपर् १८५६ में हिम्मतयाहादुर के यहाँ से चले। सघ सँचत् १८६० तक उनको इतना समय से मिलता कि मैं पुना- राघ भए प्रतापसिंह के यद्द भी दो मैर बीच में मदायजा धिया के यहाँ अरकर भी अन्य भी घना आते ! महाराजा जगसिंह ने सम्बत १८६० तक राज्य किया और सँधियो देटिवेराव ने संवत् १८८६ तक । अतः पद्माकर | का जयपुर के पीछे ग्वालियर जाना मानने में कोई आपत्ति भी 'भौं है । ग्वालियर से ये महाशय में दी गये और घर से अपने पर अदा की वापस पाये । सुना जाता है कि अंत में थ६ फुप्त रोग से पीड़ित हो गये थे । इसी समय रोगमुक्त होने की अभिलाषा से इन्होंने प्रध- पचासा नामक ५१ छन्दों को एक भक्ति रस का प्रस्थ बनाया। यह अन्य बहुत अच्छे बना है और पद्माकर के ग्रन्थों में पूज्य दृष्टि से देने योग्य हैं। इसके इन्दी से Hद टपकता है । जान पड़ता है कि दुनिया के देख्ने हुए और उससे उकताये