पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५५६

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पद्माकर ] उपराकृत भए ! हुए किसी बुड्ढे ने इसे बनाया है। थानाभाव के कारण केबल एक छट् इसका उद्धृत करते हैं, परन्तु छन्द इस सत्र दर्शनीय हैं। मानुष के रान पाय अन्हाय अयाय पियेरा किन गैंग का पानी। भापत्र य न भी पद्माकर मई गम रसायन शान ।। सागपान के पॉयन को रात्रि के मनरे। कत त गुमानो। मेठी मुबंई महा-मैदानि मूङ ६ मीच फिई मड़नी ।। रोगमुच होने पर परिज गंगासेवनार्थं कानपुर चले नये पार व मखपूर्वक अपनी मयु के शेप दिन उन्होंने प्रायः ७ साल तक यतीत कियै । इसी समय भाग गंगालहरी नामक ५६ छ की पुके उन प्रन्थ बनाया 1 इसझे भी लव छन्श्व बड़े चिञ्चकक है। उदाहरणार्थ १ छन् नीचे लियते हैं। जैसे म मा कहें नेट्स राव हुतो तैले अत्र तात्रै हैं हूँ नैकहू ने हरि६।। कई पाकर अचंद्ध । परगै ती । उमंड फर तले भुजदंड हाकि लरिद्वः ।। चलै चल चल चलु यिंच न वीवही है । कीच बीच नीच ना कुटु' बहिं कचरा । परे युगादार भरे पातको अपार चौहें। गंगा की फटार में पारि अर करिधी । पद्माकरजी ने अपने पापों का अपार कहा है। हमने वादा में जाँच करने से केवल इतना सुना यह कि इन्होंने एक सदा- रिन के घर यिटला लिया था। इस एक पति को कोई अपार