पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५५९

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मिअन्धबिने। [सं० 1७१ | अन्य सुचिये ६ मति इनकी भाषा पटुप्त मधुर और कोमल है। मेरी उत्तम मापा जाने में माहुत विशन समर्थ नहीं हुए हैं। यथा- ए प्रज्ञद च विन पा प्रज्ञ लूक' वरात व छन । पदुमफिर गैर पदासन गायक सी मन फुक्न लाग ।। ६ प्रजपा विचारी वधू पनि वायरी हिप हुन लाई । फारी कुरूप फसाने पैसा फुकु चलिया फुफन लर्गीि ।। पद्माषर ने फहीं की लेफिक्तियाँ भी बहुत अच्छी कही हैं। यथा- होने में सुध ग्र सुगध में सुन्यैा न होना सीने में सुध त में पीना दैशियत हैं! सचिह्न तक न हात भलो जो कहो नई मानत चार झने की । मविरामजी की भाति पद्माकर ने भी प्रायः हर उदाहरण में ! पड़े इर्दी के साथ पक पक दीक्षा भी कहा है जै असर उत्तम छग का होता है।ययाः-- कछु मज्ञपति के आइटनि छिन छिन भित सैर। पिनु-पास विरासत कमल कह दिनन के पैर मदन लाज वस विय नयन दैवत बनत इकत । ईंचे पिच इत उत फिरत हैं दुनार के फत् ।। इनकता थीएल फ्री रही विजन घन फूल । तादि सभत क्यों चाचरे अरे मधुप मत भूलि ।