पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५६३

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गिन्नदन्धविनाद् । [२० १८७७ रस की फुट कविता ६ । एरन्नु नै से इसमें प्रायः सभी काया के उदाहरण मिल जायेंगे ! | सधै मषार से विचारों के घेरे घर पर रेग्न पर भी इस कवि || विदुरी पी चैारी नहीं की है, यल बिहारी की छाया कुछ छ में आ गई है। था - सतरा मुख रुप किये कई रुहे बैन । मैंन जग के मैन से सने सनेह दुरन् । पञ्जन ज न र्सार लहै घाल अलि ६॥ न वनानि । पनी की यानि है ये नोकी अंपियान ।। गुरफन हो ज्यौँ ये गये। घर फरि सात जर ।। फिर न पिरयो मुरवानि चपि चित अति पति मरे || पेखि घन्दचूडहि अली ही भली विधि सँइ ! जिन लिन ग्रेटति नपन छ्दु नग्नन सूजन देई ।। इनकी कविता के उदग्दरण नीचे लिन्नतें हैं -- सीस फुराएँ द्धार व झवी दें धुट टारि । कैर सी कसके हिये वी चितवन नादि । अलि कमनि प्रसून र गर्दैि कमनैत वसन्त । मारि माटि दिरहीन कमान करेरी अन्तु ।। मनरञ्जन तव नाम की कप्त निरञ्जन लेग । अदपि अधर मजन लमै सदपि न नदिन जाग ।। सखि सँग जाति दुवो सु ती भटनेरी भी जाने । सतरेदी राहून की अक्षराही अखियानि ।।