पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५७७

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१८२ मिश्रिा : । [१० १८८३ | इनके घना हुए तीन अन्य गारे पास पर्तमान में, अर्थात् रामचन्ह का दिन, प ग्यार्थामुदी र कयिटिस, जिनमें से प्रथम र तृतीय हस्तलिपित हैं। पिएसराज़ में इन काविहार एवं प्य ग्याधामुद्दी का नाम दिया है और पद्द पाधा गया है कि इन्होंने मापाभूपण और पलभद्र में दिख मस्र का तिलप भी ला ६ । हमने ये बनाये हुए तिष म ३ ६ । चिसिएसरीज़ में लिप्त हैं कि ये देंगे। तिलक प्रताप में विराम सादि की आज्ञा पे अनुसार पाये । इनके प्रि- नग्न में फेवळ पीस छन्द हैं, जिनमें रामचन्द्र की शोभा वा धन है। इस ग्रन्थ में संवत् नहीं दिया हुआ है, परन्तु पाय-भद्रता के दफ्तै पद्द इनका प्रथम ग्रन्थ समझ पड़ता है। रोग भी इस प्रायः सप छन्द मार हैं। उद्दारपर्थ केवळ एक छन्द लिनै ६ । दोरे रतना: बिन्न कार मेर सारे क्षेत जिनके निहारे ते कुरंग गन भूले हैं। आनंद उमाइन सुकी विधु मंछ में सद के पशन सुभाय अनुरुले ६ ॥ झनकला के मृरचन्द के चार किंधों यरने न जात अति उपमा अतूले दें। दा रामल्लाचन मनेज अति भेज़ भरे सैरभा के सरोवर सरोज जुग फूले हैं l म्यार्थामुद्दी संवत् १८८२ में यन थी। इसमें १३० दी द्वारा केवल व्यंग्य का वर्णन हुआ है। यह बहुत सरधनीय ग्रन्थ