पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५७८

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माप 1 इरालंकृत प्रकरछ । है और इसे भापा-साहिल का रत्न समझना जाए। इसके उदाहरण में इनकी कविता में दिये जायेंगे । कायविलास संवत् १८८६ में बनाया गया था। यह ८२ पृष्ठं का एक विलय ध है। इसमें काब्यले क्षया, पदार्थनिर्णय ( जिसमें तात्पर्यय भी कहा गया है ), ध्वनि, रस, भाछ, सर्व- दाद, गुण, इंप, और दोप-शान्ति का थोड़े में बहुत अच्छा वर्णन हुआ है। इनके ग्रन्थों में यह सर्वोत्तम हैं । इनके बनाये नीचे लिपे ग्रन्थ खेज्ञ में मिले हैं:- | जयसिंहप्रकाश (१८५२), गरिमञ्जरी (१८८९), मारः शिरोमणि (१८५४), अकचिन्तामणि (१८९५), काव्यविनोद (१८९६), रसराज ठीका (१८९६), तथा रात्रदिफा (लतसई की दोका (१८९६)। प्रताप के सत्र गुर्गों में प्रधान इन% भापा-मोहता है। इस ववि के स्वरूप में आने दृढ़ सी घरी पाछे स्वयं मतिराम ने अचतार लिया था । प्रताप की भापा बहुत ही प्रशंसनीय है। ऐसी मधुर भापा बहुत कम सुकवि भी लिखने में समर्थे हुये हैं। प्रकाप नै मिलत अर्श बहुत कम लिने हैं । इनकी मार मतिराम की नापा में केवल इतना अन्तर है कि इन्होंने ग्रनुमास का वभसे कुछ अधिक आदर किया है। प्रधाः-- हड़प तड़का चहु रिन ते ति छाई समीरन की ल** | मदुमा मा गिरिगन १ गन मंजु सगूरन के कहः ॥ इनकी फरमी परनी न परे मारूर गुमानन सो गहु । बन नभ मंडल में हर घरै' फईं जाये कई इ॥ :