पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५८४

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क्षेनदयाल ] उत्तग्लॅम्त प्रकरए । इसमें बाबा दीनदयाल गिरि ने बहुरे विपी सहारे अन्या- यि कही है। यह अन्य विपतः फुङिया में कहा गया है। | धैर पर थाने पर देर, मालिनी कुटुम्दार' सूत्रंया यवं घनाक्षरी हैं। थइ ग्रन्थ भी प्रशंसनीय बनाई गई इसकी अन्योक्ति दुर्श- | नीय है। यद्यपि पद्द अनुरगवांग के चौबीस घर्प पीछे वना, तथापि कविती के गुपों में उससे न्युन । चिा जी वैर हम ताप कब की ४ न में रखते हैं। अन्यैकिल्पद्रुम कै उवाद्धार्थ एक छह से लिया जाता है । । गर बातन ते कच्चा धिक नरधि गम्भीर। विफल बिके कुप vथ नृपनन्त है। द्वार | एपायन्त at तार फिरे ताहिँ लाज न आवै । घर लील, कल्लीः काटि तिच विभव विषावै ॥ मरनै दीन दयाल सिन्धु है। के फा बरते। तरल तरी त्यात वृथा वातनते मरजै ॥ आज में विभ्यनार्थनवरत्न, चारपंचक, दृष्टान्ततरिगनो, पंच, वैग्यदिनेश, दीपकपंनक, और, अन्तपिका नामक इन पो और ग्रंथे पा पता लगा है। (१२४४) बलवानसिंह (उपनाम काशिराज)। माराम के घंश में महाराज चरिधंडसिंह काना | हुए। उनके पुत्र महरिराजा चेतसिंह काशिराज हुए । इन्द पुन्न कुमार घलवानसिंह ने चित्रचन्द्रका नामक ग्रन्थ संत्८८९ . में बनाया 1 हिन्दी-साहित्य का यह बड़ा सैभाग्य रहा है कि दै