पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/६२

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-६५ मिश्रवन्धुपिनाद् । [सं० १७०७ इति घमुतायत से है। बिहारी ३ घारीक प्रयाल भी बहुत अच्छे कहे हैं और दूर की के भी यह नहीं लाये हैं। कलियुग के दानियों घी बन्ने बहुत निदा फी ६ ग्रार अपनी कचहा मैं यत्र तत्र मजाक भी अच्छा रम्या है। दिन्थ में बिहारीलाले उर्दू के टुंग फी भी कांपता है और इसमें उन्हें इतफायता भी हुई ६ । साभपत, इसी कारण यह आजमा, पठान सुतान, अादि को बहुत पसन्द पड़ी । सतसई एक घड़ा ही मनोहर और चित्ताकर्षक प हैं। दुम इनकी परम प्रशंसनीय फयि समझते | ६ पैर हिन्दी में तुलसीदास, सूरदास तया देय के बाद इन्हीं पी गया है। इनका विशेष चर्शन इमारे रचित नपरक्ष में उदाहरण । पति रितु बेगुन गुन बढेस मान माद के सीत! ज्ञात कठिन है अति मृदा रयन मन नदनीत ।। वनक कनक हैं सा गुनी मापवा अधिकाय। घट्स वाये बात नर यद् पाए पैराय । तंनी नाद कवित्त रस सरस राग रति रग। इन बूढे दुई तिरे जे ई सय अग ॥ बिरह बिरुद्ध चिनही डिग्री पाती दुई पठाय। आंक, बिनी ये सुचित सूने वचन जाय । लिन डि जाँकी सविद् गईि गई गद्दब गहर। भए ने कतै जगत के चतुर चितेरे फूर ॥ अनरस लालच राल फी मुर धरी फाय। सहि फर मैंने सै देन कई नर्टि जाय । मलैया !