पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/६३

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४E विद्यारी] पूर्वोत्तकृत मकर । रनित भृग घंटाइली झरत दान मधुनीर। मंद मंद पाधत छ। केजर कुज समीर ॥ कंसरि केसर फ्य स चंपक किलक नूप। मत रूप छवि ज्ञात दुरि जातकप फो रुप ॥ गारी गदकारी परे हँसत कगानि गर्छ । कैसी लसति नैयारि यह सानकिरदा की आड़ में ३ न ही नामर म जन अादर झान । फुया अनफूल्यो भया गवर्दै गचं गुलावे ।। अनी घड़ी नहीं छये असि बाइक भष्ट भूप । में मछ करि मन्पिो दिये भी शुई मगछ रूप ।। “यदि आसा अटक्यो र अलि गुलाघ कै मुल।।। ३६ बहुरि बसा ऋतु इन द्वारा ३ फूल में ! भैरी भय वाधर इ राम्रा नागरि सेय। ‘ज्ञा वन की झाई पूरै स्याम एरित दुति देय ॥ मिलि परछा जान्ट हो रहे बुडुन ये, गात । हुरि राना इङ साथ ही चढे गर्दिन में जात । इन का पितु इन चने केई क कितेक । फिर काक अफ भये दुह देइ जिउ एक सुनत पथिक मुह माह निसि छुवै चलन पछि गाम बिनु पर्छ यिनी का लियत विचारी बाम | अंग अंग प्रतिवन्य पर दृपन से सघ गत । रे तेरे बारे भूपन जाने जात ॥