पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/६७

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5 !! रमः ] बिनु मुत सदन तिम्विको सुपति वन' | धन बिन बरम नृपति विन यदे h यिनु हुरि भजन जगत हैं उन कान नेन विनु भेाजन पिटप बिना छुद को नाथ रारस सभा ने सौहे कन्नि दिनु यिया बिन बात न नागर थिन मद्द को || (३५५) भरमी ने संवत् १७७८ के लगभग रचना की।' रचना इनकी स्फुट देखने में आती है, ले। अच्छी है। कई अन्य घेखने में नहीं आया । कायाप फमि की भेग का है । उदयि । जिन मुच्छन भरि इध फछ जग मुजस न लीनै । जिन मुच्दन भरि हाथ कट्ट परकाज़ न होने n ज्ञन मुग्छन घरि हाथ न उछि दया न आना। तिन मुच्छन धरि हाथ फचा पर पर न जानी ।। अब मुच्छ नहीं बढ़ पुच्छ मम कवि भरम जर आए । त्रित दया दान सुनमान नर्दैि मु; न तेई मुख जानिए ।। (३५६) भीष्म कविं । नै दशगरुकन्ध भागबन के मप्रमाद्ध का परम भनेर छन्दै इur 'यालमुकुन्द-लीला' के नाम से किया । इन की कविता सर्पधा प्रशंसनीय है, पर इन के समय कुल अन्न आदि के विषय में कोई पता नहीं लगतः । सईज़ में एक भैपिम फा उपसि-