पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/७५

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राम ! पूर्वानं प्ररश्। कधि मतिराम बैंक भरत मयडू मुर्सी वैसे त गईि भुज निकाल्ने ले ॥ झूमत्र का पान फरत अर्भर रस समें निहारी रीति सकल कलानि च । का चतुराई ठानियत प्रनियारी ते मनि जानियत रूसी मुन्न मुनि हो । चलय पाठ तरियन भुजन उर कुच कु कुन छाप । तिते जाउ मन भायतें जिते बिकानै अपि । तन ग्रन मॅन फी किरन समूई उछि । चैनो मंहन मुकुत वै पुञ्ज मुझे इति हैत ।। सकल सछिन के पाछे पाछे देलनि ६ । मन्द मन्त्र ने आज़द्विय के हुरत है । सुनछ इति सुन्न होते मावरान जब पोन ला देंट का पट उघरत है ॥ जना के तट, सीवट के कष्ट नन्दलाल को साचन ते चाद्यों ने परत है। रान मैं तिया । चर भाँच भरत मन साँवरे बदन पर भवः' भरत हैं। मान पाया हैं कहूँ दं बढ़त पैसे पास में स्वर्दै। गुज गरे सिर भैर पर मतिराम चे पाय चवित दै॥