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मिश्रबंधु
         पूर्व नूतन                  १३७ 
       चालीसवाँ अध्याय
       पूर्व नूतन परिपाटी
     संवत् १९४५ से १९६० तक

यों तो हिंदी प्रौढ़ माध्यमिक समय में ही परिपक्व हो चुकी थी,और जिस महत्व का साहित्य गोस्वामी तुलसीदास तथा सूरदास ने उस काल मे बनाया, वैसा हम लोगों के सामने अब तक नहीं आया है, तो भी हमारी साहित्य-प्रणाली तथा साहित्य-सेवियों की संख्या इन दोनो में समय के साथ अच्छी वृद्धि हुई है। पूर्वा- लंकृत काल में जिस महत्व के बहुतेरे साहित्य-सेवी उपस्थित हुए,उतने उनसे पहले कभी न हुए थे । उत्तरालंकृत काल तक अच्छे-अच्छे कविगण स्थायी साहित्य-विरचन में प्रचुरता से समर्थ रहे,किंतु परिवर्तन-काल में यद्यपि विषयों की अच्छी वृद्धि हुई और गद्योन्नति के साथ उपयोगी रचनाओं का आशा-जनक प्रारंभ हुआ, तथापि स्वामी दयानंद सरस्वती को छोड़कर कोई भी कवि या लेखक स्थायी साहित्य न उपस्थित कर सका । फिर भी यह अवश्य मानना पड़ेगा कि केवल स्वामीजी का अस्तित्व एक ऐसा अमूल्य पदार्थ था, जो परिवर्तन-काल को भी बहुत उत्कृष्ट बनाता हैं। आपके ग्रंथ-रत्न प्रलय-पर्यंत समाज को प्रभावित करने में सक्षम रहेंगे । यद्यपि हम लोग आर्यसमाजी नहीं हैं और स्वामीजी के बहुतेरे विचारों से हमारा मतभेद है,तथापि केवल साहित्य-समालोचक के नाते हम उनके ग्रंथों पर उपर्युक्त मत प्रकट करते हैं। यह स्वामीजी के ही उपदेशों का फल था कि हमारे देश से दुर्गा, काली आदि की वाम-मत-पूर्ण उपासना निर्बल हुई, गाजी,मियाँ, पीर आदि के मान का बल घटा, तथा ब्राह्म, ईसाई,मुस्लिम, सिक्ख आदि धर्मों की वृद्धि, जो हिंदुओं के उन मतों में जाने से