पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ४.pdf/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१४४
१४४
मिश्रबंधु
        मिश्रबंधू-विनोद              १३८

हो रही थी, वह स्थगित हुई। हिंदू-समाज में नूतन परिमार्जित विचार फैलने लगे,और सामाजिक कुरीतियों आदि के हटाने को गल्प, उपन्यास आदि बनाने की ओर हमारे लेखकों की रुचि बढ़ी। वास्तव में स्वामीजी हिंदू समाज एवं साहित्य के लिये कल्पतरु हुए हैं,और उनका इन दोनो पर भारी ऋण है। भारतेंदु-काल को स्वामीजी तथा अँगरेज़ी राज्य के प्रभावों से अच्छा लाभ हुआ,और हमारे साहित्य की प्रगति उपयोगी मार्गों की ओर शीघ्रता से बढ़ने लगी। भारतेंदु ने अनेकानेक विषयों पर परिश्रम किया, किंतु उन सबमें देश-भक्ति तथा नाटक-वृद्धि की प्रधानता रही।

हमारा नियम रहा आया है कि प्रत्येक कवि का पूरा विवरण उसके काव्यारंभ-काल में ही हम दे देते हैं । इस प्रथा से यह भी समझ पड़ सकता है कि मानो उसकी सारी कृतियाँ आरंभ-काल में ही हमारे साहित्य-क्षेत्र में आ गई, यद्यपि बात यह है कि पूरे समय के वर्णन में उसकी रचनाओं का प्रभाव समाज पर उन ग्रंथों के रचना-काल से ही वास्तव में पड़ता है। अतएव भारतेंदु के समय-वाले अनेकानेक सरस्वती के लाल ऐसे थे, जिनके वणन तो उसी समय हो गए हैं, किंतु जिनके प्रभाव नूतन परिपाटी के समयों में भी पड़ते रहे ।भारतेंदु के समयवाले प्रधान साहित्य सेवियों में जगमोहनसिंह, श्रीनिवासदास, मुंशी देवीप्रसाद, महारानीवृषभानु कुँवरि, ललित, सहजराम, बालकृष्ण भट्ट, महात्मा श्रद्धानंद (मुंशीराम ), शिवसिंह सेंगर, भीमसेन शर्मा,बदरीनारायण चौधरी,नाथूरामशंकर, द्विजराज, प्रतापनारायण मिश्र, जगन्नाथ प्रसाद भानु,लाला सीताराम, शिवनंदनसहाय, दीनदयालु शर्मा, महावीरप्रसाद द्विवेदी, गोपालराम गहमर, श्रीधर पाठक, गौरीशंकर-हीराचंद ओझा (म० म० ),और हीरालाल-ऐसे सुलेखक हुए, जिनके प्रभाव अब तक चले आते हैं।। इनमें से कुछ महाशय अब भी प्रस्तुत हैं तथा