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पूर्व नूतन

साहित्य-सेवा भी कर रहे हैं। हर्प का विषय है कि द्विवेदीजी की ७०वीं वर्षगांठ के उपलक्ष-स्वरूप काशी में सभा द्वारा उन्हें एक सम्मान-ग्रंथ भेंट किया गया, तथा प्रयाग में एक उत्कृष्ट द्विवेदी-मेला हुआ, जिसमें हिंदी-सेवियों का अच्छा समारोह था । यह घटना उपर्युक्त कथन की साक्षी-स्वरूपा है। बहुतों के थोड़े-बहुत कथन यथा-स्थान आगे भी होंगे, यद्यपि भारतेंदु-काल में इन सबके सूक्ष्म विवरण आ चुके हैं।

सिपाही-विद्रोह के पीछे संवत् १६१५ से दृढ़ता-पूर्वक अँगरेज़ी राज्य स्थापित हो चुका था, किंतु भारतेंदु के पूर्व किसी प्रसिद्ध हिंदी-कवि ने देश-भक्ति-पूर्ण विषयों को नहीं उठाया था । देश में भी कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं चल रहा था। समाज बहुत करके सुषुप्तावस्था में था। यद्यपि हमारे साहित्य-सेवी महाशय प्राचीन समारत संकुचित काव्य-रीति को छोड़कर परिवर्तन उपस्थित कर चुके थे, तथापि उसके फल पूर्णता के साथ उत्पन्न नहीं हो पाए थे। स्वामी दयानंद सरस्वती के ग्रंथों में राजनीति-संबंधी सामाजिक आंदोलन खुला-खुला तो नहीं है, किंतु धार्मिक मार्ग ही पर चलते हुए उन्होंने सनातन वैदिक मत को जागृति देते हुए ऐसी ही सामाजिक संस्थाओं को हटाना चाहा, जिनसे देशोन्नति में बाधा पड़ती थी । इन कारणों से हिंदी में राजनीतिक आंदोलन के प्राचीन-तम मूलाधार स्वामीजी ही माने जा सकते हैं । फिर भी उस काल ऐसे आंदोलन को बल प्राप्त न हुआ । भारतेंदु के अस्त हो जाने पर सं० १६४२ में भारतीय जातीय कांग्रेस की पहली बैठक हुई, पर सं० १६६० तक उसकी कोई महत्ता न हुई, और कांग्रेस विशेषतः सरकार से केवल प्रार्थनाएँ करती रही । राजनीतिक आंदोलन ने प्रथमतः आर० सी० दत्त महाशय के मालगुजारी-संबंधी व्याख्यान से बल पकड़ा, विशेषतया वंग-विच्छेद से । पहले तो सरकार