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मिश्रबंधु
     मिश्रबंधु विनोद                 १४०

कांग्रेस के मंतव्यों पर प्रकट में कुछ ध्यान ही नहीं देती थी । इस नियम को पहलेपहल भंग करके लार्ड कर्जन ने दत्त महाशय के विचारों का उत्तर दिया । भारतीयों तथा भारतीय शास्त्रों को झूठा बतलाकर भी उन्होंने देश में भारो असंतोष उत्पन्न किया, तथा बंग-भंग से उसका बहुत परिवद्धन हुआ । इस प्रकार लार्ड कर्जन के समय से जनता में राजनीतिक आंदोलन ने भारी बल पकड़ा। इस समय का वर्णन आगेवाले अध्याय में आऐगा । हमारे इस पूर्व नूतन परिपाटीवाले समय में राजनीतिक आंदोलन की महत्व न तो देश में थी, न हमारे साहित्य में ही देन पड़ती है। संवत् १९५६ में सरस्वती पत्रिका का निकलना हिंदी के लिये उस समय एक गौरव की बात थी क्योंकि ऐसी सज-धज की कोई पत्रिका तब तक हिंदी में न थी। इसके संपादक बा० श्यामसुन्दरदासजी के पशचात पं० महावीर-प्रसाद द्विवेदी हुए। इनके संपादकत्व में सरस्वती ने हिंदी-लेखकों पर व्याकरण-संबंधी प्रभाव डाला, जिसका कथन आगे के अध्याय में आऐगा । इस काल अयोध्यासिंह उपाध्याय, जगन्नाथदास रनाकर, अजमेरीजी, गयाप्रसाद (सनेही), राय देवीप्रसाद ( पूर्ण),देवकीनदन खत्री, ठाकुर गदाधरसिंह (सचेंडीवाले ), श्यामसुंदरदास, ब्रजनंदनसहाय, कन्नोमल, रूपनारायण पांडेय तथा बालमुकुंद गुप्त हमारे मुख्य साहित्य-सेवी हुए। हम लोगों (मिश्रबंधुनों)ने भी सं० १९५५ से काव्य-क्षेत्र में पैर रखा । इस काल सबसे बड़ी बात यह हुई कि प्राचीन प्रथावाली भंगार-कविता का बल बहुत क्षीण पड़ गया और विविध विषयों के वर्णन अधिकता से होने लगे। प्राचीन समय के भी कवियों में कितनों ही ने अनेकानेक ऐसे ग्रंथ बनाए, किंतु समय ने उत्कृष्ट रचनाओं को छोड़ शेष को अपनी उदर-दरी में रख लिया है, तथा बहुतेरी प्रकृष्ट रचनाएँ भी काल-