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मिश्रबंधु
   पूर्व नूतन                       १४१

कवलित हो गई हैं। अवश्य ही कभी-कभी उनमें से कुछ ग्रंथ किसी प्रकार विकराल काल के उदर से बल-पूर्वक निकाल से लिए जाते हैं, शेप सदा के लिये जाते रहे। पर वर्तमान समय के साहित्य-सेवियों की रचनाओं के विषय में काल की यह गति अभी पूर्ण वेग से कैसे चल पाती, जिससे इस कालवाले भले-बुरे सभी प्रकार के सैकड़ों-हज़ारों ग्रंथ हमारे सामने प्रस्तुत हैं । अपने जीवन-काल में तो साधारण रचयितागण भी किसी-न-किसी प्रकार स्वरचित ग्रंथों को जीवित रखते हैं, किंतु उनके शरीरांत के साथ ही उनके प्रायः सब ग्रंथ मृत हो जाते हैं। ऐसा होना अनिवाय ही समझना चाहिए,वरन् एक प्रकार से वह लाभकारी भी है, क्योंकि अत्यंत साधारण तथा अनुपकारी ग्रंथों की भरमार से साहित्य का लाभ क्या हो सकता है ? अतएव रचयितात्रों को उचित है कि बहुत-से ग्रंथ बनाने की चेष्टा छोड़कर विशेष परिश्रम द्वारा थोड़े ही से ऐसे विषयों पर अच्छी पुस्तकें बनाये, जिनमें उन्हें उपर्युक्त पात्रता हो । काल बड़ा बली है, और उससे बचाकर अपने ग्रंथों को जीवित रखना बड़ा कठिन है। बिना पूर्ण चमत्कार लाए कोई ग्रंथ कभी जीवित न रहेगा, ऐसा सभी को समझे रहना चाहिए।

जितने परिश्रम से दस ग्रंथ बनाए जाते हैं, उतने से यदि एक बने,तो शायद अपने चमत्कार के कारण काल की करालता का वह चिरकाल तक सामना कर सके । साधारण कवियों की बात जाने दीजिए, स्वयं बिहारी ने अपने हज़ारों दोहे फाड़-फाड़कर फेक दिए होंगे और केवल ७१९ वचा रक्खे, जिनकी बदौलत उनकी गणना हिंदी-नवरत्नों में है। यदि वह दस-बारह हज़ार दोहे लिखते अथवा शेष रखते, और उनमें केवल ७००-८०० वास्तव में अच्छे होते, तो उनका ताश महत्व कदापि न हो सकता । लेखकों को यह भी उचित है कि नवीन ग्रंथ बनाने के स्थान पर अपनी प्राचीन रचनाओं पर