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मिश्रबंधु
         पूर्व नूतन               १४५

कबता । आर्यसमाजियों ने व्याख्यान की प्रणाली पर जोर दिया,जिससे सनातनधर्मियों ने भी इसे उठाया । इनमें दीनदयालु शर्मा तथा ज्वालाप्रसाद मिश्र पहले आ चुके हैं, तथा भाई परमानंद(समाजी) और गणेशदत्त शास्त्री (१९५७) इस काल के हैं। यों तो बहुतेरे महाशय धारा-प्रवाह से व्याख्यान देते हैं, किंतु यहाँ उन्हीं के नाम दिए गए हैं, जो या तो धार्मिक उपदेशक हैं या राजनीतिक वक्रा । महामना मालवीयजी हमारे सबसे पुराने तथा प्रभावशाली ध्याख्याता हैं । दीनदयालु शर्मा की जिह्वा में भी भारी बल है। और भी बहुत-से महाशय हैं,जिनके नाम तक गिनाना एक भारी कार्य होगा।

पत्रकारों में इस काल देवदत्त शर्मा ( सं० १९४५), महता लज्जाराम (१९४५), बालमुकुंद गुप्त (१९४७), गोपालदास,(१९४८), पन्नालाल (१९४८), गंगाप्रसाद गुप्त (१६५७),नंदकुमारदेव शर्मा ( १९५८) आदि के नाम आते हैं । इन महाशयों के पत्रों में से बहुतों के पत्र १९६० के पीछे निकले,किंतु इन पत्रकारों के नाम लेखनरंभ-काल के अनुसार उपर्युक्त समयों पर आते हैं। पत्र-कला ने हमारे हिंदी-गद्य-लेखकों को कालक्षेप का मार्ग, स्वतंत्र जीवन तथा देश पर भारी प्रभावोत्पादन के बल दिए । उपर्युक्त महाशयों में से महता लज्जाराम, बालमुकुंद गुप्त तथा गंगाप्रसाद गुप्त की प्रधानता समझ पड़ती है। बालमुकुंदजी गुप्त इस नामावली में बहुत निकलते हुए पत्रकार हैं । सामाजिक और धार्मिक विषयों पर विचार तो आपके प्राचीन थे, जिससे हम लोगों का इनसे कई बार वाद-विवाद भी हुआ, किंतु आपकी जिंदादिली लेखों तथा भारतमित्र पत्र को बहुत सुपाख्य बनाती थी। आप कहते थे कि मिश्रबंधु हमसे लड़ तो लेते हैं, किंतु रुष्ट कभी नहीं होते। बात यह थी कि मतभेदवाले लेखों का खंडन