पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ४.pdf/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५७
१५७
मिश्रबंधु
           पूर्व नूतन              १५१

बाद करके उन पर अपने भी कुछ विचार प्रकट किए हैं । अन्यान्य लेखकों ने पौराणिक कथाओं के भाग लेकर ग्रंथ लिखे हैं, विशेषतया रामायण, कृष्णायन, द्रौपदी चीर -हरण, अभिमन्यु-वध, नल-दमयंती, जयद्रथ वध, प्रह्लाद-मोचन, सुदामा-चरित्र, कंस-वध, कर्ण लीलाओं आदि पर । ये विषय हज़ार बार पुनरावृत्तियों द्वारा ऐसे साधारण क्या फीके हो गए हैं कि इन्हीं पर नए ग्रंथों के पढ़ने को जी नहीं चाहता। फिर भी हमारे कविजन इनका वर्णन करते हुए कोई नवीन विचार तक नहीं लाते और संभव तथा असंभव-जैसे कुछ कथन प्राचीन व्यास लोग कर गए हैं, उन्हीं को आँख बंद करके मान लेना बुद्धिमानी की सीमा समझते हैं । एक समय था,जब इन प्राचीन विषयों पर संभवनीयता के आधार पर कुछ कहने. वाला धर्म-विरोधी समझा जाता था। अब ऐसी संकीर्णता बहुत कुछ दूर हो चुकी है, किंतु फिर भी हमारे नब्बे प्रतिशत कविगण इन विषयों पर कथन करते समय प्राचीन व्यासों के दासत्व से आगे एक पैग देने तक की हिम्मत नहीं करते । ऐसे दास-मानसयुक्त लेखकों को इन प्राचीन विषयों पर लिखना ही न चाहिए और ऐसे नवीन विचारों तथा घटनाओं का सहारा ढुंढना चाहिए, जिनमें वे अपने मन को दास-कल्प के बाहर पावें । फिर नूतन परिपाटी- वाले समय की कौन कहे, हम आज तक भी अपने अधिकतर कवियों को ऐसे ही दास-मानस के अनुयायी तथा समाज को मिथ्या-विश्वासो की ओर घसीटनेवाले पाते हैं । साहित्यकार के जहाँ अधिकार बहुत हैं, वहीं उसके भार भी अपार हैं । जो मनुष्य अपने को दास-कल्प के वाहर न पावे, उसे उचित है कि कम-से-कम समाज को मिथ्या उपदेश तो न देवे। एक नाटककार महाशय लिखते हैं कि सुदामा ने जो गुराइन के दिए हुए चने स्वयं सव-के-सव खा लिए; और भगवान्