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मिश्रबंधु
           पूर्व नूतन               १५३

शेष कवियों में से नब्बे प्रतिशत ने ऐसे विषयों पर सामाजिक ज्ञान-वर्द्धन का अपना पविन कर्तव्य पालित नहीं रक्खा । पुराणों के ऐसे कथन धार्मिक प्रश्न न होकर ऐतिहासिक मात्र हैं। प्रश्न यही है कि इतिहास-सिद्ध क्या बात है कि राम-राज्य ग्यारह सहस्र वर्ष रहा या तीस-चालीस वर्प-मात्र ? राम को अवतारी पुरुष मानते हुए भी कोई मनुष्य इस ऐतिहासिक प्रश्न पर स्वच्छंदता-पूर्वक विचार कर सकता है, किंतु हमारी जनता के अंध-विश्वास अशुद्ध उपदेशों के कारण इतने दृढ़ हो गए हैं कि वह इन सरल प्रश्नों पर सरल विचार करने को तैयार नहीं है। हमारे अधिकांश कविगण भी ऐसे विषयों में जनता के उपदेशक न होकर उपदेश देते हुए भी वास्तव में उसी के अनुयायी और दास हैं । ऐतिहासिक कवियों का कर्तव्य है कि संभवनीयता को हाथ से कभी न जाने देवे, किंतु होता ऐसा नहीं है। यों तो साहित्यिक वर्णनों से संभवनीयता प्रायः असंबद्ध है, किंतु जब कवि इतिहास कहने चैठे या किसी प्राचीन या नवीन घटना का ऐतिहासिक रूप में कथन करता हुआ भी असंभव कथनों का सहारा लेवे, तो उसकी रचना शतमुख से तिरस्करणीय होगी। नृतन परिपाटी-काल की यह मुख्यता है कि उच्च शिक्षा-प्रास लोग लेखकों के रूप में हिंदी में आने लगे, जिससे. हमारे यहाँ नव विचारोत्पादन बल-पूर्वक चलने लगा । कुछ दिनों तक संस्कृत,बँगला, गुजराती, अँगरेज़ी आदि के अनुवाद बहुतायत से बने,जिससे न केवल भाव-परिवर्द्धन न हुआ, वरन् भापा में भी नवीनता एवं सांस्कृत शब्दों की वृद्धि हुई । इस विषय पर कुछ अधिक प्रकाश उत्तर नूतन परिपाटी के कथन में डाला जायगा । यहाँ केवल इतना कह देना अलम् है कि नव-विचारागमन के साथ भाषा का भी रूप बदलने लगा, और उस पर शुद्ध हिंदी शब्दों की अपेक्षा अन्य भाषाओं के शब्द-समूह का साम्राज्य फैलने लगा । सबसे

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