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मिश्रबंधु
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अधिक संस्कृतपन की वृद्धि हुई। यह उन्नति है या अवनति, सो अभी हम नहीं कहते, किंतु बात ऐसी अवश्य हुई। पौराणिक मत का आर्यसमाज घोर विरोध करता है। समाज में भी बहुतेरे उच्च कोटि के लेखक तथा व्याख्यता हैं। भारतेंदु-काल में महात्मा श्रद्धानंद तथा लाला लाजपतिराय भारी समाजी लेखक एवं व्याख्याता हुए । पूर्व भूतन परिपाटी-काल में समाजी लेखकों में निम्न-सज्जनों के नाम पाते हैं-गोपालदास देवगण शर्मा (१९४६),देवीदयालु (१९४६ ), विष्णुलाल शर्मा (१९४९), बदरीदत्त शर्मा (१९४९), नरदेव शास्त्री (१९४९ ) और ठाकुर गदाधरसिंह (१९५१)। इनमें से कई महाशय उत्कृष्ट लेखक तथा व्याख्याता थे। विशेष विवरण आगे मिलेगा । प्राचीन अँगरेज़ लेखकों में डॉक्टर रुडाल्फ हार्न ली, फ्रेडरिक पिन्काट, डॉक्टर सर जार्ज ग्रियर्सन,जान क्रिश्चन आदि ऐसे महाशय थे, जिन्होंने लिखा तो अँगरेजी में,किंतु हिंदी पर प्रचुर परिश्रम किया । जान महाशय हिंदी में लेख तथा कविता भी रचते थे

पैतीसवें अध्याय (मिश्रबंधु-विनोद, तृतीय भाग ) में हमने कई विषयों का कथन करते हुए नाटकों का भी वर्णन (पृष्ठ ११७४-७६ ) किया है। उस स्थान पर वर्तमान नाटककारों के कथन कर दिए गए हैं। वह वर्णन पूरे वर्तमान प्रकरण से संबद्ध था, सो उसमें १९२६ से अब तक का सूचम कथन किया गया है । अब उसी विषय पर पूर्व नूतन परिपाटी-कालवाले नाटककारों का पृथक् वर्णन किया जाता है। भारतेंदु के पूर्व पूर्ण नाटक उनके पिता गिरिधरदासजी ने रचा, जिसे नहुष-नाटक कहते हैं । उसका भी गद्य खड़ी बोली में न होकर व्रजभाषा में है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सर्वांग-सुंदर खेलने योग्य उत्कृष्ट नाटक रचे । अँगरेजी, बैंगला आदि के प्रभाव ले भारतेंदु के पीछे चंपू, भाण, प्रहसनादि कुछ