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मिश्रबंधु
            पूर्व नूतन             १५५

अधिकता से लिखे जाने लगे । भारतेंदु ने भी कुछ ऐसे नाटक लिखे थे। फिर भी इनमें वह चमत्कार न आया, जिसे उच्च कोटि का कहते हैं । बंगाल में बंगला-नाटकों की जैसी मनमोहिनी उन्नति हुई है, वैसी अपने यहाँ अभी तक नहीं हो सकी है । कारण यह है कि युक्त-प्रांत में नाटकीय कंपनियों का कार-बार बहुत करके नगरों के सहारे चलता है, जहाँ हिंदी-उर्दू का बेढव प्रश्न लगा हुआ है। मुसलमान लोग तो हिंदी की ओर प्रायः नहीं के बराबर ध्यान देते हैं, और हिंदुओं में से बहुत अधिक जिस सुगमता से उर्दू समझ सकते हैं, उतना हिंदी को नहीं। हम लोगों के विद्यार्थी-जीवन तक पूरे विद्यार्थियों में से हिंदी पढ़नेवाले बहुत ही स्वल्प भाग में होते थे । आजकल उनमें से प्रायः ६० प्रतिशत हिंदी पढ़ते हैं। फिर भी नागर-भाषा में उर्दू के शब्द इतने अधिक मिले रहते हैं कि युक्त-प्रांतीय हिंदी पढ़नेवाले विद्यार्थी भी सुगमता-पूर्वक उर्दू समझ सकते हैं। समाज में इस काल फारसी-शब्द-मिश्रित खड़ी बोली के समझनेवाले संस्कृत-शब्द-मिश्रित भाषा के समझनेवालों की संख्या से अधिक हैं। उर्दू में फ़ारसी-शब्दों का एवं हिंदी में संस्कृत शब्दों का जितना अधिक मिश्रण होता जाता है, उतना ही वह साधारण जनता की भाषा से दूर हटती तथा जन-समुदाय के लिये दुज्ञेय होती जाती है । फल यह है कि जनता अभी तक हमारे उच्च कोटि के नाटकों की भाषा नहीं समझ पाती एवं उर्दू वाले नाटकों को प्रायः समझ लेती है, जिससं कंपनियाँ हिंदी- नाटके न खेलकर उर्दू की खेलती हैं । यह हिंदी-नाटक-विभाग की उन्नति के प्रतिकूल बड़ा भारी कारण है। बंगला-नाटक रंग-मंत्र पर झट से खेली जाने लगती हैं, जिससे कवियों को अपनी रचनाओं के गुण-दोप सुगमता -पूर्वक अति शीघ्र ज्ञात हो जाते हैं, और उनकी आगेवाली रचनाएँ दिनोंदिन अधिकाधिक उन्नति करती हैं, क्योंकि