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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद ( १६५८), रघुनाथसिंह (१६५६), अजमेरीजी (१९६०), गयाप्रसादजी सनेही (१९६०), देवनारायण (१९६०) श्रादि । हम (श्यामविहारी मिश्र तथा शुकदेवविहारी मिश्र) ने भी मिलकर प्रायः ४०० पृष्ठों का पद्य-काव्य नाटकों से इतर बनाया है, जिसमें से प्रायः १६० पृष्ठों की खड़ी बोली में कविता है और शेष अवधी तथा ब्रजभाषा की। परिवर्तन काल में कविता गिरी दशा में रही और हरिश्चंद्र-काल में कुछ उन्नति करके उसने पूर्व नूतन परिपाटी-काल में बल धारण किया । लाला भगवानदीन श्रादि कई कवियों ने वीर काव्य पर भी ध्यान दिया है। हमने भी लवकुश- चरित्र और बूंदीवारीश में वीर काव्य करने का प्रयत्न किया है । पहले ग्रंथ में पौराणिक रीति पर वीर काव्य है और दूसरे में आधुनिक रीति का युद्ध कथित है । उपर्युक्त कवियों में से कई प्रजभाषा में रचना करते हैं और कई खड़ी बोली में । उत्कृष्टता इन दोनो भाषाओं में अच्छी था सकती है, किंतु खड़ी बोली की रचना नवीनता के कारण साधारण होने पर भी कुछ-कुछ कमनीयता-मंडित देख पड़ती है । साहित्य-गौरव के लिये नवीनता एक प्रकार से आवश्यक गुण है। ब्रजभाषा में प्रायः पाँच सौ वर्षों से नायिका-भेद का कथन होता चला आया है, सो सब-के-सव भाव जूठे-से हो गए हैं। अब उसी प्राचीन विषय पर धेपते चले जाने से भावों में नवीनता तथा वर्णन में चमत्कार लाना कठिन है। इसलिये जिन महाशयों को ब्रजभाषा पर ममता हो, उन्हें प्राचीन प्रथानुरूप नायिका-भेद, नख-शिख, अलंकार, पट्ऋतु आदि के वर्णन छोड़कर प्रणाली बदलनी होगी, नहीं तो गोस्वामीजी की कहावत उनको रचना पर चरितार्थ हो जायगी कि "जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं, सो श्रम वादि वाल कवि करहीं।" अब भी ब्रजभाषा में उत्कृष्ट वर्णन हो सकते हैं, किंतु विषय-परिवर्तन