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मिश्रबंधु

पूर्व नूतन किंतु हम उन्हें समालोचक नहीं कह सकते, क्योंकि हउवाद उनके विचारों में कुछ अधिकता से है । हिंदी में उर्दू कवियों का कुछ ज्ञान शर्माजी लाए थे । लाला भगवानदीन की समालोचना भी कुछ-कुछ हठवाद लिए हुए थी, किंतु शर्माजी के समान नहीं । लालाजी समा- लोचक न होकर वास्तव में टीकाकार थे । कई महाशय अनेक साहित्यकारों तथा साहित्य पर समालोचना लिखते हुए कुछ विषयों पर पचास-पचास, साठ-साठ पृष्ठों के निबंध- से लिख जाते हैं, और अंत में उदाहरण की भाँति आलोच्य कवियों अथवा साहित्यिक समयों के रचयिताओं से दो-चार मोटी-मोटी बातें कहकर समझ लेते हैं कि उन्होंने विशिष्ट कवियों अथवा समयों के साहित्य की समालोचना कर डाली। वास्तव में ग्रह समालोचना न होकर उन विषयों पर निबंध-मान होता है, जिनके कथन उन्होंने किए हैं । समालोचना में सुख्य वर्णन कवि का चाहिए, और उसी की स्चना के साथ जहाँ कहीं अच्छे सिद्धांत निकले, उनका सूचमता- पूर्वक विवरण लिख देना उचित है । जहाँ कविता का वर्णन मुख्य तथा सिद्धांतों का गौण होगा, वहाँ साहित्य-समालोचना समझी जायगी, किंतु जहाँ सिद्धांतों का प्रचुर कथन होबार कविता का सूक्ष्म वर्णन उदाहरण' की भाँति दे दिया जायगा, वहाँ साहित्यिक समा- लोचना के स्थान पर रचना-कथित सिद्धांतों पर निबंध मात्र मानी जायगी। बहुत-से समालोचक आजकल कवियों पर गोल-गोल शब्दों में सम्मति देते चले जाते हैं, किंतु उनका किसी कारण माला द्वारा समर्थन करते ही नहीं । कारण-शून्य सम्मति कथन को ही वे समालोचना कहकर सकारण कथन को समझाना-मान कहते हैं । ऐसे विचार प्रत्यक्ष ही थोथे हैं, क्योंकि कारण-शून्य कथनों का मानना-न मानना पाठक की विद्वत्ता पर अवलंबित है, न कि समा- लोचक के भाव प्रकटीकरण पर ।