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मिश्रबंधु

सं० १९४८ पूर्व नूतन 158 सत्य सिपाह स्नेह की बड़ी नहिं व्यभिचार निहारे । देस-देस के प्रानी जीवत तेरी ही भुज छाया , भए कनौड़े राखि सकत नहिं तव सहाय बिन काया। देशकाल अरु पात्र चीन्ह के दान मुक्त कर दीजें, लुटेन कोप, जुटे संपति, निज धर्म रहे सोइ कीजे । नीच. लुटेरे जो कहुँ ताकै तेरी दिसि तिरछौ , तैतिस कोटि उटै निसंक भुज, तनैं बैंक ह्र भी हैं। आए धन के लोभ पाप ते बिनसे शत्रु धनेरे , जनपद तेरोइ तुही प्रजापति, छन्न सीस इक तेरे। नाम--(३४८४) शिवविहारीलाल मिश्र । जन्म-काल-सं० १९१७ । कविता-काल-१६४८ के लगभग । विवरण- [..आपका जन्म संवत् १९१७ में इटौंजा-माम में हुआ 'था। आपके पिता पंडित बालदत्त मिश्र बड़े प्रसिद्ध महाजन, ज़मीदार और कवि थे। आपने बाल्यावस्था में इटौंजा और फिर महोना में उदू की शिक्षा पाई और अंत में लखनऊ में रहकर अँगरेज़ी पड़ी । ए'ट्रेस पास करके नौ मास तक आपने एफ० ए० में शिक्षा पाई, पर इस समय आप कुछ ऊँचा सुनने लगे, सो क्लास में अध्यापकों का पढ़ाना भली भाँति न सुन पाते थे। इस कारण पढ़ने से आपका चित्त ऊब गया और आपने सरकारी नौकरी कर ली। थोड़े दिनों में वकालत पास करके संवत् १६४५ से आप लखनऊ में वकालत करने लगे। अपने इस काम से पैत्रिक संपत्ति बढ़ाने में आपने बड़ी सहायता दी और महाजनी के व्यापार को ज़मी- दारी में बदल दिया । सं० १६१० में आप हैज़ा-रोग से बहुत पीड़ित हुए और आपके जीवन की कम आशा रही, पर ईश्वर ने अच्छा कर दिया। संवत् १९१४ में आपको कुछ मास खाँसी और ज्वर का