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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९४८ रोगारहा, और एक बार छ मास समुद्र-तट पर वाल्टेर में रहना पड़ा, जिससे उस रोग से भी मुक्ति हो गई, परंतु श्वास की शिकायत कुछ चली ही जाती थी। आपका शरीरपात १९७४ में हो गया। कविता की ओर पहले आपका ध्यान न था, पर पीछे से यह रुचि भी आपको हुई, और संवत् १६४८ के लगभग से अाप रचना करने लगे। उदाहरण- झूमत हैं मद सों भरिकै मृग से पुनि चौंकि चहूँ दिसि जो हैं, खंजन से उड़ि जात सबै थल मीन सपच्छ मनौ जुग सो हैं नूतन कंज समान विकास धरे चख ये सबको मन मो हैं, पै उलटो गुन धारि सदा वनि बान समान हनै मन को हैं । १.! मीन मृग खंजन तुरंग सौं चपलताई, कंज दल ही सों लै सरूप सुद पायो है । बेधकपनो है जौन अति अनियारो ताहि ; बानन सों लैके कूरताई उपजायो है। स्यामताहलाहल सों मद सों ललाई पुनि, चारु मतवारोपन लेके छबि छायो है। अमिय सों लैके सेतताई जग मोहन को; बिधना जुगल इन नैनन बनायो है। २ । आपके एक पुत्र और दो कन्याएँ हैं । पुत्र लक्ष्मीशंकर मिश्र विलायत में पढ़कर अब लखनऊ में बैरिस्टरी करते हैं। नाम-(३४०९ ) बदरीदत्त शर्मा, काशोपुर, नैनीताल ! जन्म-काल-सं.१९२४ । समय-सं० १९४९ । ग्रंथ-(१) दशोपनिषत् (अनुवाद), (२) विवेकानंद के न्याख्यान (भाषा), (३) अइला-संताप, (४) संस्कृत-प्रबोध,