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मिश्रबंधु

सं० १९५० पूर्व नूतन १९६ उदाहरण- उदय अस्त में एकता है जिसका व्यवहार ; यही मिन्न सूरज-मुखी कर सकता है प्यार । ज्ञान, द्रव्य, यश, स्वार्थ की है जिसमें भरमार ; बसे हुए उस हृदय में कहाँ बलेगा प्यार । नाम--(३४६७ ) गौरीशंकर गुरु ( कवींद्र), दतिया । जन्म-काल-सं० १९२० (पशकर-वंशी)। रचना-काल-सं० १९५० के लगभग । ग्रंथ-(१) प्रताप-पच्चीसी, (२) कीर्ति-पचासा, (३) कवित- रामायण, (४) विश्व-वितास (नाटक)। विवरण-~- -~-याप अत्रिगोत्रीय गाविड ग्राहाण कविवर पद्माकरात्मज पं. मिहीलालजी के पौत्र हैं। आपके पिता पं० लक्ष्मीधर (श्रीधर) जी भी एक असाधारण कवि हो गए हैं । अपने पिताजी की भाँति श्राप भी दतिया के राजकवि के पद को सुशोभितकर रहे हैं । इनके पूर्वजों का, विशेषतया पिताजी का काव्य-शक्ति के नाते बुंदेलखंड की प्रायः समस्त रियासतों में विशेष सम्मान रहा। वर्तमान दतिया-नरेश श्रीलोकेंद्रबहादुर गोविंदसिंहजू देव ने इनके 'विश्व-विलास' नामक नाटक पर प्रसन्न होकर इन्हें कोंद्र की उपाधि एवं राज्य-सम्मान प्रदान किया है। राज्य-कार्यों में भी श्रापका मान है। कवि होने के अतिरिक्त श्राप धर्मोपदेशक भी हैं, और इसी कारण आपके नाम के साथ 'गुरु' शब्द संलग्न हो गया है। वास्तव में अापकी कविता-शक्ति आपके कुल की संपत्ति है । कहा जाता है कि कवींदजी के निजू पुस्तकालय में पद्माकरजी आदि पूर्व कवियों के कई उत्तमोत्तम अप्रकाशित ग्रंथ संगृहीत हैं ! ऊपर दिए हुए आपके ग्रंथों में से अाखिरी दो ग्रंथ अभी अप्रकाशित रूप में हैं। आपकी साहित्य-रचना पद्माकरी शैली पर श्लाघ्य है।