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मिश्रबंधु

. . सदा . मिश्रबंधु-विनोद सं० १९५२ एकता के सूत मैं अकूत देश बाँधै वीर , देशी माल देश ही में राखै हौहि हरखा; चक्ररूप धारै, राजा रंक की सँवारे देह, चरखा बनाय डारै दारिद को चरखा । परसुराम अरु राम कृष्ण के रहे विरोधी , ईशो, बुद्ध, प्रताप, शिवादिक के पथ रोधी तिमि गांधी के परे देखि जहँ तह रिपुरुरे, वंचक देश सुधार-धार के बंधन पूरे। जाग्रत प्रभात में निरखि निज छिन्न भिन्न माया महल । शुचि सृष्टि सुधारक के रहते द्रोही दैत्य दल। समय-संवत् १६५२ नाम-(३५१८) कृष्णबलदेव खत्री, कालपी। जन्म-काल-सं० १९२७ के लगभग । समय-१६५२ । ग्रंथ-भर्तृहरि-नाटक, फाहियान भाषा, ह्य एन्त्सांग भापा, विद्या- विनोद पत्र का कुछ साल तक संपादन । विवरण--यह महाशय हिंदी के बड़े रसिक और गद्य के सुलेखक थे। प्राचीन विषयों की खोज में भी इन्होंने समय लगाया। इनका भत हरि-नाटक पढ़ने से रुलाई श्रा जाती है। विद्या-विनोद पन्न भी इन्होंने कुछ साल निकाला । अापका स्वर्गवास सं० १९८८ में हुआ । मरने के पूर्व इनको इस बात का कुछ भान हो गया था, जिससे यह हम तीनो लोगों तथा अन्य मित्रों, से यही कहकर मिल गए कि शायद अब मिलना न हो। नाम--(३५१६) गंगाप्रसाद अग्निहोत्री (पंडित)।