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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९५४ जन्म-काल--सं० १९२१ । 3 उदाहरण- निवेदन यौवन-श्रीम-प्रचंड-ताप में झुलस रहा है मेरा मन ; तीन-लालसा-लू की लपटें बढ़ती जाती हैं छन-छन । अंतस्थल को जला रहा है धधक-धधकार प्रेम-अनल फूट-फूटकर विलप रही है परदे में वासना विकल । मेरी हृदय-वेदना हर जा दरस दिखाकर ऐ स्वामी पा विश्राम सुखद छाया में होऊँ तेरा अनुगामी । नाम-(३५३२) भगवानदीन मिश्र ( दीन )। जन्म-काल--स० १६११ (अनुमान,से । हसारे मिलनेवाले थे।) विवरण---यह खैराबाद, सीतापुर-निवासी एक प्रशंसनीय कवि थे। श्रापने विविध छंदों में एक रामायण तथा बहुतेरे स्फुट छंद कहे। होली-विषयक बहुत-से कबीरवत् विषयों के भी आपने घनाक्षरी आदि छंद रचे । साहित्य-विषय के आनंद में प्रायः आप निमग्न हो जाते थे । अनुचित अभिमान के यह ऐसे विरोधी थे कि उसको कदापि सहन नहीं कर सकते थे। दीन कवि दरिद्रता की दशा में भी उदा- रता का सुख अनुभव करते और यथासाध्य श्रीमान मनुष्यों की भाँति व्यय करने से सुख नहीं मोड़ते थे । इनके विषय में इनके मित्र ने क्या ही ठीक-ठीक कहा था कि- भनत विशाल जग-शोधक भंडौवा रचि, मानिन को मान झरसावत फिरत हैं। चारु कविताई के अनंद को सरूप निज मीतन को दीन दरसावत फिरत हैं। आपकी ब्रजभाषा-रचना उच्च कोटि की है । इनके छंद हमने बहुत सुने हैं, किंतु इस समय कोई उदाहरण हमारे पास नहीं है। -