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मिश्रबंधु

३२२ मिश्रबंधु-विनोद सं० १९६१-७१ में विशेषतया गिनाए जा सकते हैं-हरीकृष्ण जौहर (१९६२), छोटेराम शुक्ल (१९६७), इंद्रजी (१९७०) ( स्वामी श्रद्धानंद के सुपुत्र.), मातादीन (१९७०), शिवदास पांडेय ( १९७०), लक्ष्मण नारायण गर्दै (१९७१), नर्मदाप्रसाद मिश्र ( १९७२), झावरमलजी (१९७३), बनारसीदास चतुर्वेदी ( (१९७४), शिवपूजनसहाय (१९७५)। इनमें हरीकृष्ण जौहर, इदजी, मातादीन शुक्ल, गर्दैजी, बनारसीदास चतुर्वेदी तथा शिवपूजन- सहाय श्रादि के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं । उपर्युक्त सभी महाशय पत्र-संपादन-कार्य सुचारु रूप से करते हैं। पुराने समय में हमारे पत्रकार लोग बहुधा धार्मिक, सामाजिक प्रादि विषयों में प्राचीन विचार रखते थे, किंतु अब परिष्कृत भावों का साम्राज्य फैल रहा है.। हमारी पत्र-संपादन-कला उन्नति करती जाती है, किंतु समाज. में हिंदी-पत्रों का मान कई कारणों से वैसा नहीं है, जैसा अँगरेज़ी- पत्रों का । इससे हिंदी के मासिक, पाक्षिक श्रादि पत्र तो कुछ-कुछ उन्नति कर भी रहे हैं, किंतु दैनिक, साप्ताहिक आदि पत्रों की संतोष- प्रदायिनी उन्नति नहीं है। संसार में स्थायी, अद्ध स्थायी तथा अस्थायी साहित्य का प्रचार होता है । उत्कृष्ट साधारण नथ प्रथम श्रेणी में हैं, मासिक तथा अद्ध मासिक पत्र दूसरी में और दैनिक, साप्ताहिक. आदि तीसरी में। तीनो प्रकार का साहित्य समाज पर प्रभावः डालता है । स्थायी साहित्य प्रचुर काल तक स्थिर शिक्षा देता है. किंतु श्राह्निक काम-काजों एवं जनता की प्रगति पर जैसा प्रभाव साधारणतया अस्थायी साहित्य का पड़ता है, वैसा स्थायी का नहीं। अर्द्ध स्थायी की दशा दोनो के बीच में है । हमारा स्थायी तथा श्रद्ध स्थायी साहित्य सामाजिक स्थिति के अनुसार बहुत करके योग्य सेवा कर रहा है, परंतु अस्थायी साहित्य ग्रामों में तो थोड़ा बहुत प्रभाव रखता है, किंतु नगरों की सुपठित जनता पर वह प्रभाव