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मिश्रबंधु

३२४ मिश्रबंधु-विनोद सं. १९६-७२ ( १९७०) और बनारसीदास चौबे (१६७४) ने परिश्रम किया है। इनके ग्रंथ और प्रयत्न श्लाघय हैं । भवानीदयालजी ने अधिक- तया आफ्रिका का वर्णन किया है और चौवेजी ने उपनिवेशों की राजनीतिक स्थिति का । हास्य-रस में इस काल लल्लीप्रसादजी पांडेय, (१९६८) तथा जी० पी० श्रीवास्तव (१९७२) दर्य हैं। इन दोनो की कोई विशेष मुख्यता नहीं है। हास्य-रस के सफल कथन में परमोच्च साहित्यिक शक्ति की आवश्यकता है। पात्रों की मूर्खता के बल पर इस रस का उचित समावेश नहीं होता। फिर भी हमारे हास्य-रस के लेखकों ने अब तक मूर्खता का सहारा छोड़कर इसके वर्णन में सफलता प्रायः नहीं पाई है। आगरा में इस विषय पर कुछ श्लाघ्य श्रम हुआ है। प्रेमात्मक विषयों पर जानकीप्रसाद द्विवेदी ( १६६१), किशोरी दास (१९७५) तथा मोहनलाल ( १६७५) के नाम इस काल आते हैं। द्विवेदीजी ने नख-शिख तथा प्रेम पर काव्य रचा, किशोरीदास ने अलंकार पर तथा रीति-नथ बनाए, और सोहनलालजी व्यंग्य- चित्रकार हैं। किसी समय में भक्तों तथा शृगारी कवियों का हमारे यहाँ बाहुल्य था, किंतु समय के उलट-फेर से अब ऐसे रचयिताओं की संख्या लुप्तप्राय है । शास्त्रकारों में इस काल केवल बाबू गुलाबराय गुप्त का नाम आता है। आपने तर्क-शास्त्र तथा दर्शन के इतिहास रचे हैं, जो उत्कृष्ट नथ हैं। इनमें इन शास्त्रों पर अंगरेजी तथा संस्कृत दोनो के विचारों के सार आ गए । पौराणिक विषयों पर खंड काव्य की भाँति नाटक, काव्य-ग्रंथादि तो बने, किंतु किसी ने पुराणों पर कहने योग्य निबंध न लिखा । आर्यसमाजी लेखकों में इंद्रजी के अतिरिक्त कोई भारी लेखक नहीं दिखाई पड़ता। नाटककारों में इस काल जयशंकर प्रसाद (१९६१), माधव शुक्ल ( १६६४ ), गोविंदवल्लभ पंत (१९७० ), प्रेमचंद