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मिश्रबंधु

सं० १९६१-७५ उत्तर नूतन (१९६५) और अंबिकादत्त त्रिपाठी ( १६७३ ) प्रमुख हैं। इनमें जयशंकर प्रसाद तथा पंतजी न केवल इस काल के, वरन् हमारे सभी समयों के नाब्यकारों में स्तुत्य माने जा सकते हैं । जयशंकर प्रसाद- सा नाट्यकार हिंदी ने भारतेंदु के अतिरिक्त शायद अब तक नहीं उत्पन्न किया है। ईश्वर इन महाशय को चिरायु करे । इनसे हमारे नाटक-विभाग को बड़ी आशा है। इन्होंने कई नाटक-मथ (विशाख, जनमेजय का नाग-यज्ञ, चंद्रगुप्त मौर्य, अजातशत्रु, कामना, स्कंद- गुप्त, करुणालय, राजश्री तथा एक चूंट) रचे हैं, जिनमें स्कंद- गुस बहुत ही स्तुत्य है । चंद्रगुप्त और अजातशत्रु भी उत्कृष्ट नाटक हैं। अजातशन्नु की भापा कहीं-कहीं क्लिष्ट है। यह बात स्कंद गुप्त में नहीं है। अजातशत्रु में पात्रों की परिस्थिति बदलती है, किंतु स्कंदगुप्त में यह भी नहीं है, जिससे खेलने में अड़चन न पड़ेगी। इन बातों के अतिरिक्त ये दोनो नथ प्रायः एक-से है। इनसे चरित्र-चित्रण अच्छे हैं, जिनसे मानसिक वृत्तियों की वृद्धि दिखाई पड़ती है। करुणा श्रापका प्रधान रस है, जिसका चित्रण अपूर्व छटा दिखलाता है । ये नाटक भावात्मक, आदर्शात्मक तथा इतिवृत्तात्मक हैं, और यही इनकी मुख्यता है । अत्यधिक प्राध्या- मिकता से कहीं-कहाँ क्लिष्टता भी आ गई है। गाने नवीनता लिए हुए गांभीर्य-पूर्ण हैं, जो कंपनियों के छिछोड़ेपन को बचाते हुए आरोचन लाते हैं। इनके नाटकों को लोग छायावादात्मक भी कहते है, विशेषतया कामना और अजातशत्रु को । कामना छायावाद के कारण अरोचक हो गया है, किंतु अजातशत्रु ठीक है । विशाख में महत्ता नहीं है। नारा-यज्ञ साधारण है । शेष नाटक भी ऐसे ही हैं । चंद्रगुप्त अवश्य उत्कृष्ट है । अभी तक प्रसादजी का प्रसादत्व अजातशत्रु, चंद्रगुप्त और स्कंदगुप्त पर अवलंबित है। भाषा की क्लिष्टता से अभिनय में इनके नाटक लोक-प्रिय न होंगे, इतना दोप