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मिश्रबंधु

सं० १९६१-७१ उत्तर नूतन शान का प्रकृष्ट संग्रह दिखलाया है। यदि इतिवृत्तात्मकता को कुछ कम करके श्राप आदर्शात्मिकता एवं भावात्मिकता की ओर कुछ झुळ सकते, और अपने चरित्रों को साधत एक-सा निभा सकते, तो परमोत्कृष्ट औपन्यासिक होने की पात्रता आपमें प्रस्तुत थी । देश-प्रेम की ओर तो आय बढ़े हैं, किंतु जितना कुछ देशीय मान है, उसकी भी सम्यक् रक्षा आपसे नहीं हो सकी है। एक क्षत्रिय रईस तो योरेशियन बालिका के साथ रंगभूमि में अपना पुत्र विवाहने की स्वीकृति दे देता है, किंतु जातीय अभिमान. वश योरेशियन एक हिंदू से अपनी लड़की नहीं विवाहता । यह चित्रण असली चित्र का ठीक विपरीत दृश्य दिखलाता है। इतना सब होते हुए भी हम आपको एक भारी उपन्यासकार मानते हैं। आपके बड़े ग्रंथ उत्कृष्ट, किंतु सदोप है, तथा छोटी कथाएँ बढ़िया और निर्दोप हैं। इनमें वर्णन की शक्ति अच्छी है, किंतु कथानों के देखते हुए प्रायः अनुचित विस्तार द्वारा ग्रंथ बढ़ गए हैं । जयशंकर प्रसाद ने भी कंकाल-नामक उपन्यास लिखा है। उसका कथा-भाग इतना धुमावदार और परिणाम ऐसा अरोचक है कि ग्रंथ उत्कृष्ट होकर भी पसंद नहीं आता । वृंदावनलाल के गढ़-कुंडार का प्रथमा बढ़िया है, किंतु उत्तराई शिथिल पड़ गया है । लेखक ने बुंदेलखंड का हाल खूब जानकर ग्रंथ लिखा है। हमारे गल्प तथा आख्यायिका-लेखकों में इस काल निम्नलिखित महाशयों की गणना हो सकती है-जयशंकर प्रसाद (१९६७), प्रेमचंद (१६६१ , लक्ष्मीनारायण गुप्त (१९७०), विद्याभूपण ( १९७५), कौशिकजी (१९७०), सुदर्शनजी (१९७०), चतुरसेन शास्त्री ( १६६४) आदि । प्रसादजी की कहानियों में साहित्विकता उत्कृष्ट है, तथा आध्यात्मिकता एवं ऐतिहासिक खोज को उसी में मिलाकर आपने अच्छी छटा दिखलाई है । जो