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मिश्रबंधु

सं० १९६- ३२८ मिश्रबंधु-विनोद मुख्य गुण उनके नाटकों में हैं, वही यहाँ भी मिलते हैं। प्रेमचंद ने समाज तथा कौशिकजी ने कुटुंब पर अच्छा प्रकाश डाला है। प्रेमचंदजी घटनाओं के सहारे अधिक चले हैं, किंतु प्रसादजी भावों की प्रधानता रखते हैं। सुदर्शनजी ने भारतीयपने को पाश्चात्य ज्ञान से मिलाकर रोचक प्रबंध बांधे हैं । हृदयेश (चंडीप्रसाद) अलंकृत भाषा तथा वास्तविकता से आगे बढ़कर कथाओं में भी भावुकता दिखलाते हैं । चतुरसेन की भाषा में अपूर्व बल है। हम इनको प्रायः अद्वितीय गल्पकार मानते हैं । राय कृष्णदास उच्च कोटि की कहानियाँ लिखते हैं, किंतु आध्यात्मिकता के आधिक्य से सब लोग उनमें ताश आनंद नहीं पाते । फिर भी हमें इनके नथों में कुछ-कुछ जटिलता होते हुए भी अच्छा चमत्कार दिखाई पड़ता । हमारा गल्प तथा आख्यायिका-विभाग उत्तर नूतन परिपाटी काल ही में उठकर अति शीघ्र प्रौढ़ता को प्राप्त हो गया। अजीम- बेग चग़ताई की भी छोटी कहानियाँ अच्छी है, किंतु उनकी उर्दू- कहानियों के हिंदी में अनुवाद-मात्र हुए हैं । इस विभाग को भंग- पुष्टि भविष्य में भी अच्छी होगी, ऐसी अाशा है। कई मासिक पत्र इस पर विशेष ध्यान देते हैं। सरकवियों में इस काल निम्न-लिखित महाशयों के नाम सामने पाते हैं-जानकीप्रसाद (१९६१), शिवरन शुक्ल (१९६१), देवीप्रसाद चतुर्वेदी (१९६२), जनार्दन मिश्र (१६६३), हरिदत्त दीन (१९६४), गदाधरसिंह ( १६६५), नूतन (१९६५), चंद्रभानुसिंह ( १९६७ ), सूर्यप्रसाद त्रिपाठी (१९६७), मातादीन शुक्ल (१९७०), चतुरसिंह (१९७०), मैथिलीशरण गुप्त (१९७० ), लघमण शास्त्री (१९७०), मातादीन शास्त्री (१९७०), अवंतविहारीलाल माथुर ( १९७२), रामनरेश त्रिपाठी (१९७२), जगदीश झा 'विमल' (१९७१), लोचनप्रसाद पांडेय (१९७२),