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मिश्रबंधु

सं. १९६१-७५ उत्तर नूतन अंबिकादत्त निपाठी ( १६७३), केशवलाल मा (१९७४) रामकुमार वर्मा (१९७४), गुरुभक्तसिंह (१६७५), रामचरित उपाध्याय (१९७५), सुमित्रानंदन पंत (१९७५), उमराव- सिंह ( १६७५), नवीन (१९७५), रामनारायण शर्मा ( १६७५ ), सियारामशरण गुप्त (१६७५ ) तथा वियोगी हरि (१६७५)। इन सब महाशयों ने उत्कृष्ट रचना की है। किसी-किसी ने ब्रजभाषा में, किसी ने खड़ी बोली में और बहुतों ने दोनो में। इनमें से प्रायः सभी के उदाहरण ग्रंथ में मिलेंगे, सो प्रत्येक साहित्यिक के विषय में कुछ अधिक विवरण अनावश्यक है। ग्रंथ में वर्णन और उदाहरण दोनो सूक्ष्मता-पूर्वक मिलेंगे। फिर भी शिवरत शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त तथा गुरुभक्तसिंह विशेषतया वर्णनीय हैं । शुक्लजी ने कई उत्कृष्ट काव्य-ग्रंथ रचे हैं, तथा गुरुभक्तसिंहजी के छोटे-छोटे ग्रंथों में काव्यत्व की कमनीयता अच्छी मिलती है । गुप्तजी बहुत ही लोकमान्य सुकवि हैं, जिन्हें हम भी आदर की दृष्टि से देखते हैं । पं० सुमित्रानंदन पंत एक बहुत ही उच्च कक्षा के कवि-रल हैं। इनके तीन नय देखने में आए हैं, जिनमें एलव मुख्य है । इस ग्रंथ का साहित्य परमालौकिक आनंद देता है। सच पूछा जाय, तो यह अाजकल के ऐसे कवि हैं, जिनकी उपमा हम अपने प्राचीन कवियों से निःसंकोच भाव से दे सकते हैं। पंत, निरालाजी और अजमेरीजी वर्तमान काल के कवियों में बहुत ही स्तुत्य हैं । श्राशु- कविता अजमेरी जी में खूब है, भाव-गांभीर्य एवं प्रारोचन पंत में तथा नवीनता की कमनीयता निराला में। हमारा उत्तर परिपाटी काल यदि केवल जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत को उत्पन्न किए होता, तो भी वह धन्य होता। टीकाकारों में इस काल मक्खनलाल शास्त्री (१९७१) का प्राधान्य है तथा अनुवादकों में जनार्दन झा (१९६१),