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मिश्रबंधु

सं० १९६१-०५ उत्तर नूतन चलने लगा, पंतजी का साहित्य प्रस्तुत न होता, तो हम भी शायद हिंदी के छायावादी कवियों के निंदकों में होते । इनके तथा निरालाजी के होने से हम इस विभाग की मुक्त कंठ से स्तुति करेंगे। मुख्य बात कवि-सामर्थ्य है । सुकविगण प्रत्येक विषय का जाज्वल्यमान विवरण लिख सकते हैं । योग्यता काम थाती है । यह कहना हमारी समझ में अनुचित है कि हमारे छायावादी कविजन शेली, कीट्स आदि के बहुत पीछे छूट जाते हैं । अभी हमारे यहाँ इसका प्रारंभ ही है । संभव है, प्रसाद, पंत और निराला ही मिलकर भविष्य में इस विभाग को परमोत्कृष्ट बना दें। हम तो आज भी इसे उन्नत समझते हैं । उत्तर नूतन परिपाटी काल तक हमारी हिंदी इतनी सुखदा उन्नति कर आई थी कि इसके रूप के विषय में भी बड़ी तीरता से विवाद जो अब तक चल रहा हैं । आदिम वैदिक समय में हमारी भापा श्रासुरी कहलाती थी, जिसमें ऋग्वेद की अचानों का गान हुआ । उस काल प्राकृत भाषा कैसी थी, इसका पूरा पता नहीं चलता । ऋग्वेद में अनायों के विषय में लिखा है कि इनकी कोई भापा नहीं है, और ये चिल्लाना-मात्र जानते हैं। फिर भी पंडितों ने जाना है कि जन-समुदाय में उस काल भी या कम-से-कम ब्राह्मण- काल में एक भाषा थी, जिसे पहली या पुरानी प्राकृत कहते हैं । समय के साथ इन दोनो भाषाओं का प्रभाव एक दूसरी पर पड़ते हुए नवीन अावश्यकताओं अथच विचारों के अनुसार दोनो का विकास हुआ । प्रासुरी बढ़कर पुरानी संस्कृत हो गई, और प्राकृत साहित्यिक भाषा । इस विषय का कथन हम( शुकदेवविहारी मिश्र)ने इतिहास पर हिंदी के प्रभाववाले ग्रंथ में भी कुछ किया है। सारांश यह कि सूत्रकाल में इन दोनो भाषाओं में साहित्यिक रचनाएँ होती थीं। सूत्र-काल में व्याकरण ने खासी उन्नति की, और प्रायः छठी शताब्दी- संवत्-पूर्व तक यास्क, पाणिनि प्रादि याकरणकारों की सहायता से.. 2