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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९६१-७१ पहली संस्कृत का अधिक संस्कार होकर वह दूसरी संस्कृत्त अथवा केवल संस्कृत कहलाने लगी। छठी शताब्दी सं० पू० में पाणिनि और बुद्ध के समय दूसरी प्राकृत ( पाली ) भी श्रेष्ठ साहित्यिक मापा थी। इसके पीछे नंद-वंश के मंत्री महर्षि कात्यायन.(तीसरी शताब्दी संवत् पूर्व) तथा पुष्यमित्र के पुरोहित महर्षि पतंजलि (दूसरी शताब्दी संवत् पूर्व) ने सांस्कृत व्याकरण की और भी वृद्धि करके इसे बहुत कठिन कर डाला । यहाँ तक कहा गया कि असंख्य- प्राय पठन से सी व्याकरण का अंत नहीं मिल सकता । ऐसी जटिल भाषा स्वभावशः देश की मातृ-भाषा या राष्ट्र-भापा नहीं हो सकती थी, क्योंकि करोड़ों देशी लोग केवल भाषा-ज्ञान- प्राप्ति में इतना समय नहीं व्यर्थ कर सकते थे, जितना व्याकरण के प्रेमी लोग उनसे चाहते थे । फल यह हुआ कि देश में दिनोंदिन संस्कृत का हास तथा प्राकृत का प्रकाश होने लगा । व्याकरणकार लेखकों पर भाँति-भाँति के कथनों, गालियों आदि द्वारा दवाव डालते रहे । यहाँ तक कि प्राकृत का व्याकरण भी दृढ़ हो गया, जिससे देश के लिये किसी और भाषा की आवश्यकता हुई। ऐसी भाषा अपनश कहलाई। भारत एक भारी देश है । विविध प्रांतों तथा एक ही प्रांत में भी शब्दों के एकाधिक रूप चलने लगे, अथच. व्याकरण-संबंधी नियमों की स्वभावशः अवहेलना होने लगी। लोग मातृभाषा चाहते थे, जो श्राप-से-श्राप आ जाय, तथा वैयाकरण लोग पंडित-भाषा चलाली चाहते थे, जिसके पठन के लिये प्रचुर परिश्रम एवं समय की आवश्यकता थी। लोगों ने पंडितों के कथनों का तिरस्कार करके मातृभाषा का व्यवहार किया। केकई, कैकेई, केकयी श्रादि एक ही शब्द के अनेक रूप प्रचलित रहे । पतंजलि महाराज ऐसे रूपों की घोर निंदा करते रहे, और पंडित लोग इस मातृ-भाषा का अपभ्रंश कहकर अपमान करते रहे, किंतु संसार. ने इसी का मान