पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ४.pdf/३४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३४०
३४०
मिश्रबंधु

सं० १९६९-७५ उत्तर नूतन किया । कालिदास और बाणभट्ट तक के समयों (पाँचवीं और सातवी शताब्दी संवत् ) में इसका प्रचार था। समय के साथ बढ़ती हुई. यही भापा हिंदी हो गई । प्रारंभिकलमय में हिंदी का अपभ्रंश से मिलता-जुलता रूप रहा, किंतु पीछे से इसने शीघ्रता-पूर्वक उन्नति की । प्रौढ़ माध्यमिक काल तक हिंदी पूर्णतया प्रौढ़ होकर परमोत्कृष्ट पद्य-नथ उत्पन्न कर सकी। मुसलमानों के श्रागमन से हिंदू-मुसलमानों के भापा-भेद मिटाने को किसी नवीन भापा की आवश्यकता पड़ी। वे लोग दिल्ली, मेरठ- प्रांत में पहले बसे थे, सो वहीं की भाषा में अपने भी कुछ शब्द जोड़कर बातचीत का काम चलाने लगे । यह भाषा उर्दू कहलाई। जहाँ-जहाँ मुसलमानों का प्रभाव फैलता गया, वहाँ-वहाँ के नगरों में उर्दू का प्रचार होता गया, किंतु ग्रामों में प्रांतीय भापाएँ चलती रहीं। यही दशा आज तक है । शाहजहाँ के समय तक उर्दू ने भी अच्छी उन्नति कर ली थी। हमारे यहाँ तब तक गद्य-काव्य नहीं के बराबर था, तथा पद्य में ब्रजभाषा का प्राधान्य था, अथच अवधी भी कुछ-कुछ चलती थी। अँगरेज़ी राज्य के स्थापन से गद्य की उन्नति हुई. और लल्लूजीलाल, राजा शिवप्रसाद, स्वामी दयानंद, भारतेंदु आदि के साथ विविध रूप धारण करते हुए हिंदी-गद्य संस्कृत-गुंफित रूप की ओर अग्रसर हुआ। भारतेंदु के समय तक देश-भापा से यह हिंदी बहुत पृथक् न थी। किंतु पीछे के कुछ कवियों आदि ने इसमें अधिकाधिक संस्कृत-शब्दों का प्रयोग बढ़ाया, सो हमारी उच्च श्रेणी की समझी जानेवाली हिंदी लोक-भाषा से दिनोंदिन अधिकाधिक दूर होती जाती है, जिससे इसकी प्रतियोगिनी उर्दू का प्रभाव नगर-निवासी हिंदुओं पर से शिथिल होने के स्थान पर दृढ़ हो रहा है। इसी संस्कृत-बाहुल्य के कारण हिंदी के नाटक हमारे रंगमंच पर मान नहीं पाते, और उस ' 9