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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९६१-७५ पर उर्दू का सिक्का यथावत् जमा हुआ है। बहुत लोग समझते हैं कि वही हिंदी उच्च है, जिसमें संस्कृत-शब्दों का बाहुल्य हो । ऐसे लोगों को चाहिए कि क्रिया आदि की जो थोड़ी-सी 'नीचता' उनके हिंदी-लेखों में लगी रहती है, वह भी निकालकर करोति, वपति आदि लिखने लगें। वास्तव में उच्च हिंदी का उदाहरण यदि देखना हो, तो चतुरसेन शास्त्री तथा उग्र की भापा पढ़ी नाय । यदि सांस्कृत शब्द-बाहुल्य से ही हिंदी उच्च हो सकती, तो उत्कृष्ट गद्य-लेखन बहुत सुगम हो जाता । वास्तव में संस्कृत द्वारा गूढ़ की हुई भापा निंध है, ऊँची नहीं। इतना सब देखकर भी न देखते हुए हमारे संस्कृत-प्रेमी महाशय केवल लांस्कृत शब्द-बाहुल्य से संतुष्ट न होकर सस्कृत-व्याकरण के नियमों का भी अधिकाधिक अारोप हिंदी पर करना चाहते हैं । पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस विषय पर बहुत ही श्लाध्य अथवा निय श्रम किया । यह श्रम अदूरदर्शी संस्कृत-प्रेमियों के लिये श्लाध्य है और व्यापक साहित्य-प्रेमियों की दृष्टि में निंद्य । हमने संवत् १९६७ के निकट अपना हिंदी-नवरत्न ब्रथ साधारण बोलचाल के निकटवाली भाषा में प्रकाशित कराया। इसमें शब्दों के रूप भी एकाधिक प्रकार से लिखे हुए थे। द्विवेदीजी ने सरस्वती पत्रिका के बयालीस कालमों में हमारी भाषा की निंदा की । हमने उस लेख का उत्तर दिया, किंतु कुछ लोगों ने यह भी समझा कि मिश्रबधु भूल से, बिना सोचे-समझे, शब्दों के अशुद्ध रूप लिख गए, तथा अब धींगाधींगी करके उन्हें नवीन सिद्धांतों द्वारा ठीक प्रमाणित करते हैं । अतएव परसाल हम( श्यामविहारी मिश्र ) ने हिंदी- साहित्य-सम्मेलन के सभापतिवाले श्रासन से इसी सिद्धांत पर पुनः' कथन किए । विभक्ति, प्रत्यय, लिंग-भेद आदि पर भी हम स्वच्छंदता के पक्षी हैं । इस विषय पर कई सज्जनों ने हमारा विरोध किया है,