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मिश्रबंधु

सं० १९६१ उत्तर नूतन ३३७ जिनके उत्तर हमने माधुरी तथा सुधा पत्रिका में छपवाए हैं । इस वर्ष के ( तेईसवें ) सम्मेलन ने दिल्ली में हमारा यह विचार विना . वाद किए ही मान लिया है । सभापति श्रीमान् गायकवाड़ नरेश, श्रीयुत बिड़लाजी, माखनलालजी चर्वेदी आदि ने अपनी स्वतंत्र . वक्त ताओं में भी यही मत देश के लिये अनिवार्य माना । प्रयोजन यह कि यह श्रम अथवा भूलों का विषय न होकर हिंदी के जीवन तथा राष्ट्रभाषापन का प्रश्न है । यदि हिंदी पर व्याकरण का बल बढ़ा, तो यह मातृभाषा न रहकर मृत भाषायों में चली जायगी। इसलिये हम लोग सिद्धांत के रूप में संस्कृत के नियमों को हिंदी में अमान्य समझकर शब्दों के वे रूप लिखते और इतरों से लिख- वाना चाहते हैं, जो सांस्कृत व्याकरण के नियमों से चाहे अशुद्ध हों, किंतु देश में उनका प्रचार हो । स्मरण रखना चाहिए कि हिंदी- भाषा ही उन नियमों की तिरस्कार-रूपा उत्पन्न हुई है। इस काल व्याकरणकारों में रामलोचनशरण (१९७५) मुख्य लेखक हैं। बालोपयोगी ग्रंथों में रामजीलालशरण ( १६६५) ने विशेप श्रम किया। उत्तर नूतन परिपाटी कालवाले लेखकों तथा कवियों के पृथक् वर्णन पूर्व क्रमानुसार आगे पाते हैं। समय-संवत् १६६१ ३८८२) जयशंकरप्रसाद, बनारस । जन्म-काल-सं० १६४६ । ग्रंथ-(१) कानन-कुसुम (१११ कविताओं का संग्रह), (२) प्रेम-पथिक (भाव-पूर्ण छंदोबद्ध काव्य ), (३) महाराणा का महत्त्व, (४) समाद चंद्रगुप्त मौर्य ( ऐतिहासिक नाटक), (५) छाया (चित्ताकर्षक ११ गल्पों का गुच्छ ), (६) उर्वशी चंपू (संस्कृत वि० संस्करण), (७) राज्यश्री ( नाटिका ), ()