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मिश्रबंधु

मिश्रबंधु-विनोद सं० १९६१. करुणालय (नाटक), (१) प्रायश्चित्त (नाटक), (१०) कल्याणी परिणाम (रूपक), (११) झरना (काव्यमाला), (१२) अजातशत्रु (बौद्धकालिक नाटक ), (१३) स्कंदगुप्त विक्रमादित्य (नाटक), (१४) प्रतिध्वनि (गल्प, गद्य-काव्य), (११) कंकाल (उपन्यास । कई गल्प भी। विवरण--श्राप काशी के गण्य-मान्य रईस बाबू देवीप्रसादजी सुँघनी साहु' के सुपुत्र हैं । आप जाति के कनौजियां वैश्य हलवाई हैं । वर्तमान काल के श्राप एक सुकवि और उच्च कोटि के नाटक- रचयिता हैं । ऐतिहासिक विषय पर तथा गल्प-ग्रंथ भी मापने अच्छे लिखे हैं । इनके नाटकों का आजकल बहुत मान है। भारतेंदु से इतर ऐसा नाटककार हिंदी में शायद कोई नहीं हुआ है । आपके स्कंदगुप्त विक्रमादित्य, अजातशत्रु और चंद्रगुप्त बहुत ही उच्च कोटि के ग्रंथ हैं । लेखन-विधि ऊँची है । नाटकों में गाने तथा छंद बहुत ही मनोहर अन्योक्ति-मिश्रित भी लिखते हैं । भाषा- काठिन्य से इनके नाटक रंगभूमि में शायद खेले नहीं जावेंगे, क्योंकि सर्व-साधारण उन्हें समझ नहीं सकते। आपके नाटक परमोच्च पाध्य ग्रंथ हैं । 'उर्वशी' तथा प्रेमराज्य श्रापकी प्रारंभिक रचनाएँ हैं । काशी की सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका इंदु में इनकी गद्य तथा पद्य- मय रचनाएँ प्रकाशित हुआ करती थीं। उदाहरण- उदित कुमुदिनी-नाथ हुए प्राची में ऐसे-- रतनाकर से सुधा-कलश उठता हो जैसे। धीरे-धीरे उठे नई श्राशा से मन में : क्रीड़ा करने लगे स्वच्छ स्वच्छंद गगन में। चित्रकूट भी चित्र-लिखा-सा देख रहा था मंदाकिनी-तरंग उसी से खेल रहा था। .