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मिश्रबंधु

सं० १९६३ उत्तर नूतन सौंदर्यमय जीवन रक्तिमारंजित गगनपट-युक्त ऊपा थी खड़ी, कंज-कलियाँ भी इधर बस खिलखिलाकर हँस पड़ी। सर-सलिल-सुरभित समीरण भर उदर दिन-भर अली सुस्कुराती शेष तक बस, मंजुता मुरझा चली। अति दीर्घ जीवन का कभी क्या हो सका कुछ मूल्य है बढ़ नाय ऊँचे ताइ-से क्या कंज के वह तुल्य है। देख लो सौंदर्य जीवन का यही जाता कहा आयु-भर अल्पायु हो संसार को भाता रहा। , स्फुट रचनाएँ . चलत समीर धीर सौरभ सनी रहै जु , नीर मद दान च्वै मतंग मतवारो सो कोकिला कलापी पापी पपिहा पुकार करै, वार-बार झिंगुर झिगारै वनमारो सो। पथिक न अाज जात को कहीं बाट प्राली, बालम विदेस परमेस न पधारो सो चित घबरात रात-दिन ना सोहात, जब श्रावत घुमड़ि घेरि घोर धन कारो सो। बादर-समूह को तो चादर सो रोकि राखै , दादुर अहीसर को सौंपि दै बधिक कीर कोकिला कसाइनी को काग करि डारी, और सारिका सरापि सिर-हीन करि दै सरीर । कवि परमेस अंब केवरा कदंबन को खोजि-खोजि चंपक के तरु को करै करीर ; एतो उपचार के जो हरै हिय पीर आज , सोई है जगत बीच साँचो मत हितू बीर । $